Monday, 31 August 2009

पंचायतों में बढ़ी महिलाओं की ताकत



अन्नू आनंद


आखिर यूपीए सरकार ने दुबारा सत्ता में आने के बाद अपना वादा पूरा करते हुए पंचायतों के सभी स्तरों पर महिलाओं को पचास प्रतिशत आरक्षण देने का प्रस्ताव पारित कर दिया है। सरकार के इस फैसले की प्रंशसा की जानी चाहिए क्योंकि इससे लोकतंत्र की प्रक्रिया मजबूत होने के साथ महिलाओं के लिए शहरी निकायों, विधानसभा और संसंद की राह सुलभ हो सकेगी। इस संदर्भ में संसद के अगले सत्र में विधेयक लाया जाएगा। अभी तक केवल चार राज्यों मध्यप्रदेश, बिहार, उतराखंड, और हिमाचल प्रदेश में ही महिलाओं के लिए पंचायतों में 50 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था है। शेष सभी राज्यों में 36.8 प्रतिशत सीटों पर करीब 10 लाख महिलाएं पंचायतों में मौजूद हैं। सरकार के इस फैसले के लागू होने से गावों की करीब 14 लाख महिलाएं पंचायतों के राज -काज में हिस्सेदारी कर सकेंगी। पिछले डेढ़ दशक के इतिहास को देखें तो पता चलेगा पंचायतों में भागीदारी ने ग्रामीण महिलाओं को सामाजिक और राजनैतिक रूप से सबल बनाने का काम किया है। इस सबलता के चलते ये महिलाएं गांवों की बुनियादी जरूरतों को पूरा करते हुए अपने अपने इलाकों में शराब -विरोधी, महिला हिंसा और अन्य लैंिगक भेदभावों की ओर मुखर हुई है। वर्ष 1994 में संविधान के तिरहतरवें संशोधन के जरिए लोकतं़त्र की इस पहली सीढ़ी पर महिलाओं ने कदम रखा था। डेढ़ दशक का यह सफर कोई आसान न था। पहले पांच सालों तक का समय सबसे चुनौतीपूर्ण था। यह वह दौर था जब घर की देहरी पार कर पंचायत की बैठकांे में आने वाली महिलाएं राजनीति के दांव पेच नहीं जानती थीं। अशिक्षा, अज्ञानता और समाज की पुरूषसतात्मक सोच ने इन महिलाओं के रास्तों में कम रूकावटें नहीं खड़ी कीं। वे पंचायतों की बैठकों में अकेले जाने से घबराती या किसी भी कागज पर मुहर लगाने जैसे फैसले लेने से हिचकिचातीं और ग्राम सभा का काम पतियों के भरोसे चलाती थीं। पंचायतों की महिला सरपंचों को ‘रबड़ स्टैम्प’ और उनके पतियों को ‘सरपंच पति’ कहा जाने लगा। लेकिन दूसरे चरण की शुरूआत में जब पुरूषों ने इन्हीं आरोपों का फायदा उठाते हुए उन्हें सता से बाहर करने की कोशिश की तो कुछ राज्यों में गैर आरक्षित सीटों पर भी महिलाएं जीत कर आईं। इसके अलावा बहुत सी महिलाएं धीरे -धीरे घर के पुरूष सदस्यों द्वारा पंचायत के कामकाज में दखल का विरोध करने लगीं। अब स्थिति यह है कि 86 प्रतिशत महिला प्रधान ग्राम पंचायतों की सभाओं को आयोजित करने और उसमें विकास के विभिन्न मुद्दों को उठाने का काम कर रहीं हैं। पिछले साल एसी नेल्सन ओआरजी मार्ग’ द्वारा अभी तक पंचायती राज पर कराई गई सबसे बड़ी सर्वे ने पंचायतों की महिलाओं द्वारा शिक्षा और स्वास्थ्य और अन्य जनहित मुद्दों पर मुखर होने का आंकड़ो सहित विश्लेषण किया है। सर्वे के मुताबिक करीब 58 से 66 फीसदी महिला प्रतिनिधि ग्रामीण बच्चों को स्कूलों में दाखिल कराने संबंधी कामों में जुटी हैं। इसके अलावा 41-51 प्रतिशत महिला प्रतिनिधी बीमारियों की रोकथाम के लिए अभियान चलाने और महिला स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता फैलाने के कामों में लगीं हैं जबकि बहुत सी महिलाओं ने प्रधान या वार्ड सदस्य बनने के बाद घर के विभिन्न मसलों पर उनकी राय लेने जैसे बदलावों की बात भी स्वीकारी। लेकिन हकीकत यह भी है कि बहुत सी पंचायतों में विकास से संबंधित बहुत से फैसले इसलिए लंबित पड़े हैं क्यों महिला सरपंच, उपसरपंच, मुखिया या प्रधान को पंचायत के पुरूष सदस्यों का समर्थन नहीं मिलता। निसंदेह 50 फीसदी आरक्षण के चलते बैठको में बढ़ने वाली महिला सदस्यों की संख्या से अब उनके राय मशवरे को नजरअंदाज नहीं किया जा सकेगा। जनहित के कामों में महिला नजरिए की बढ़ी ताकत का फायदा पूरे समाज को मिलेगा। लेकिन आरक्षण की अवधि कम होने के कारण इन महिलाओं को भी उन्हीं दिक्कतों का सामना करना पड़ेगा। पूर्व पंचायतीराज मंत्री मणि शंकर अययर ने स्वीकारा था कि ग्राम पंचायत में पहली बार आने वाली महिला अनुभव न होने के कारण अधिक सार्थक भूमिका नहीं निभा पाती लेकिन जब तक वह अनुभव हासिल करती है आरक्षण की अवधि खत्म हो जाती है। सर्वे के आकड़े भी इस बात के पक्षधर हैं कि महिलाओं को पर्याप्त प्रषिक्षण न मिलने और उन्हें दूसरी बार चुनाव लड़ने का मौका न मिलने के कारण वे अपनी काबिलियत साबित नहीं कर पातीं। इसलिए य िजरूरी है कि आरक्षण की अवधि बढ़ा कर 10 साल कर दी जाए। इसके अलावा इन महिलाओं को प्रशासनिक प्रशिक्षण देने के संसाधनों की तरफ भी सरकार को ध्यान देना होगा। फिलहाल इसके लिए एनजीओ की मदद से कुछ अकादमियों और प्रशिक्षण संस्थाओं की व्यवस्था है लेकिन वे मौजूदा सदस्यों को प्रशिक्षण देने के लिए ही पर्याप्त नहीं। मघ्यप्रदेश, हरियाण जैसे राज्यों में ऐसी कईं महिला सदस्य प्रशिक्षण के अभाव में अपनी सार्थकता साबित नही कर पा रहीं। बिहार, छत्तीसगढ़ सहित पंचायतों की महिलाओं ने स्वयं सहायता समूहों और जीविका अर्जन की अन्य योजनाओं से जुड़ कर गांवों का जो कायाकल्प किया है वह आने वाले समय में पंचायतों में महिलाओं की बढ़ी तादाद के साथ एक बड़ी क्रांति बन कर सामने आएगा। (यह आलेख 29 अगस्त 2009 को दैनिक जागरण में प्रकाशित हुआ है)

Thursday, 27 August 2009

स्त्री विमर्श के कुछ अहम सवाल

अन्नू आनंद

स्त्री में किसी भी परिस्थिति, वातावरण में स्वयं को ढालने की क्षमता गजब की है। अपनी इस कला में वह इस कदर माहिर है कि इसके लिए वह स्वयं को पूरी तरह भुला देती हैं। खासकर विवाह के बाद वह जिस प्रकार अपनी इच्छाओं और आकांक्षाओं को भूलकर एक नया अवतार धारण करती है उससे मुझे बेहद झल्लाहट होती है। अपनी इस अदाकारी के लिए वह प्रशंसा की पात्र है या नहीं की इस पर मेरी सोच अलग हो सकती है। लेकिन मुझे दुख इस बात का है कि मैं हर दूसरी स्त्री में अपना वजूद मिटाकर भी खमोश, संतुष्ट और सहज रहने वाली ‘कलाकार स्त्री’ के दर्शन करती हूं। इसलिए मेरा संताप बढ़ता ही जा रहा है।

कुछ समय पहले मुझे अपनी बेहद पुरानी सहेली से मिलने का अवसर मिला। मेरे लिए उससे मिलना किसी उत्सव से कम नहीं था। इस सहेली से मैंने अपने स्कूल और कालेज के दिनों में बहुत कुछ सीखा था। शलिनी, उसके नाम से ही मैं स्कूल के दिनों में रोमांचित हो जाती थी। पढ़ाई में तो वह हमेशा अव्वल आती ही थी। अन्य पढ़ने लिखने के कामों मे भी उसका दिमाग खूब चलता था। उससे प्रतिस्पर्धा के चलते अक्सर मेरी उत्सुकता रहती कि कोई किताब ऐसी न रह जाए जिसे पढ़ने में वह मेरे से आगे निकल जाए। नईं चीजांे को जानने समझने की उसे हमेशा उत्सुकता रहती। हर विषय में उसकी महारत मेरी हर चुनौती की प्रेरणा बनती। उसकी प्रतिभा, वाक-शैली और विचारों के कईं ट्राफीनुमा साक्ष्य, सालों तक स्कूल और कालेज में प्रिसींपल के आफिस की शोभा बढ़ाते रहे। उसे जब पता चला कि मैं षहर में हूं तो वह मुझसे मिलने आई फिर हम दोनों मिलकर उसके घर गए। मैं उससे 13 सालों में शादी के बाद पहली बार मिल रही थी। उसकी शादी स्कूल में दसंवी कक्षा तक हमारे साथ पढ़ने वाले एक लड़के के साथ हुई थी। कक्षा की सबसे तेज और बुदिजीवी लड़की का विवाह अमुक लड़के से होने की बात जानकर मुझे पहले थोड़ा अजीब अवश्य लगा लेकिन जल्द ही मैंने इसे दकियानूसी सोच मानते हुए झटक दिया और उसकी घर-गृहस्थी की बातें सुनने लगी। हंसते हुए उसने बताया कि ‘‘मैनें स्वयं कभी नहीं सोचा था कि इनसे मेरा विवाह होगा वह भी अरेंज’’। बातचीत का सिलसिला लंबा चला। बातचीत में ‘‘ये कहते हैं’’, ‘‘इन्होंने बताया’’ ‘‘इन्हीं को पता है’’, जैसे वाक्यों की गिनती घड़ी की आगे बढ़ती सुइयों के साथ बढ़ती जा रही थी। उसकी बातों का केंद्र पति, बच्चे और ‘‘हमारे यहां तो ऐसा होता है’’ जैसे विशयों पर ही रहा। चलने का समय हो गया था। शालिनी को अपने घर परिवार में खुश और संतुष्ट देखकर मुझे संतोष हुआ। लेकिन मेरे मन में उस की दबी बैठी छवि कुछ ओर जानने के लिए उत्सुक थी इसलिए पूछ बैठी, ‘‘अरे भई तुम्हारी किताबों का कलेक्शन तो बहुत बढ़ गया होगा क्या वह नहीं दिखाएगी। इतने सालों में तो तुमने ढेरों बुक्स जमा कर ली हांेगी। उसने हैरत से मुझे देखते हुए पूछा, ‘‘कौन सी किताबें भई? मैंनें तो कभी कोई किताब नहीं पढ़ी। अरे, तुम्हें याद नहीं स्कूल और कालेज में तो तू कोई भी किताब आते ही पढ़ लेती थी। दरअसल किताबें पढ़ने की आदत तो मुझे तुमसे ही पड़ी। उसने जैसे कुछ याद करते हुए जबाब दिया, ‘‘अरे तब। वह तो और बात थी तब तो स्कूल -कालेज के दिन थे। मैनें तो अरसे से किसी किताब को हाथ भी नहीं लगाया।’’

वास्तव में उसके करीने से सजे सजाए पूरे घर में न तो कोई किताबों की अलमारी नजर आई और न ही कोई षेल्फ। घर लौटते हुए मैं हल्के से सिदंूर से सजी मांग, हाथों में चूड़ियां और मुंह में ‘इन्होंने कहा’ की रंटत वाली शालिनी में कभी स्कूल-कालेज के विभिन्न आयोजनों पर स्वतंत्रता, दहेज, विधवा विवाह और बालगंगाधर तिलक, जैसे शूरवीरों पर अपने वक्तव्यों से कईं प्रतियोगियों के छक्के छुड़ाने वाली शालिनी की छवि ढूंढ रही थी। शालिनी को मिलने के बाद कईं दिन तक मुझे यह बात कचोटती रही कि क्या शालिनी को इस बात का अहसास है कि अपने घर परिवार की सेवा में वह अपनी वास्तविक अस्तित्व को होम कर चुकी है। शायद नहीं या फिर वह जानना नहीं चाहती।

मीनू या मिसेज श्रीवास्तव। हम आस-पड़ोस की महिलाएं उसे इसी नाम से जानते हैं। मेरी पहली मुलाकात उससे उस समय हुई जब वह हमारे पड़ोस में अपने दो साल के बच्चे और पति के साथ रहने के लिए आई। उस समय मेरी बेटी की उमर भी यही थी इसलिए हम अक्सर मिलने लगे। मीनू सीधी-साधी गृहणी। उसका सारा दिन पति और बच्चे के इर्द-गिर्द उनकी इच्छाओं को पूरा करने में बीतता। खुद घूमने कहां जाएं, बच्चों को घूमने कहां ले जाएं, मिलकर खाना कब खाएं, बच्चों को कौन से स्कूल में डालें हर एक बात का उसके पास संक्षिप्त सा उतर होता ‘इनससे पूछकर बताऊंगी’। उसे साड़ी पहनना बहुत पसंद है। हमें भी वह साड़ी में बेहद अच्छी लगती लेकिन जब भी हम कहते तुम साड़ी क्यों नहीं पहनती तो उसका जवाब होता ‘इन्हे’ं मेरा सूट पहनना पसंद है। एक बार बातों बातों में उसने बताया कि जानते हो कभी कभी मेरा मन क्या चाहता है कि मुझे पंख लग जाएं और मैं जी भरकर आकाष में उडं़ू। ऐसे ही एकबार जब मैं उसके घर में बैठी और वह घर की सफाई कर रही थी तो मेरी नजर एक फाइल पर पड़ी जिस पर लिखा था। डा ममता त्रिवेदी। मैंने पूछ लिया यह डा ममता त्रिवेदी कौन है? उसने बताया अरे मेरा ही नाम ममता है और मेैने संस्कृत में पीएचडी की है इसलिए मैं डा,ममता त्रिवेदी हुई। उसी बातचीत में उसने बताया कि अव्वल दर्जे में पीएचडी करने के बाद उसे कालेज में पढ़ाने क्ी नौकरी मिल रही थी। उसे लेक्चरर बनना बेहद पसंद भी है। लेकिन उसका कहना था बच्चे के साथ यह संभव कैसे होता। मैंने उससे समझाते हुए सवाल किया कि मेरी बेटी भी तो तुम्हारे बेटे जितनी है और हमारी पारिवारिक जिम्मेदारियां भी समान है, मैं भी तो नौकरी कर रही हूं। उसका जवाब था लेकिन ‘इन्हे’ं पसंद नहीं। इसलिए मैंने काम करने का विचार त्याग दिया। मेरी डिग्री भी बेकार गई पर क्या करूं। आखिर पति के अगेंस्ट भी तो नहीं जाया जा सकता। मीनू के इस समझौतेवादी रवैये की मैं प्रशंसा करूं कि वह कमसे कम अपनी इच्छाओं को मार कर ही सही घर-परिवार में सुख शांति तो बनाए बैठी है या उसकी मन की दमित इच्छाओं और उसके अस्तित्व को खोने का दुख मनाउं। बात केवल एक मीनू की होती तो मैं शायद संतोश कर लेती। लेकिन अपने वजूद को मिटाकर अपनी इच्छाओं का गला घोटकर भी अपने परिवारों में हंसती इठलाती महिलाएं हर तरफ दिखाई पड़ जाएंगी। ‘अंडजेस्टमेंट’ की बलि पर चढ़ने के लिए तैयार वह भी बिना किसी षिकवे षिकायत के। बचपन से ‘हर हाल में अडजेस्टमेंट’ की घुट्टी शादी के बाद इस कदर असर दिखाती है कि वह यह जानना ही नहीं चाहती कि उसकी शिक्षा, उसका ज्ञान उसकी सोच भी समाज के विकास के लिए उतना ही अहम है जितना कि पुरूष का।

पिछले सप्ताह गयाहरवीं में पढ़ने वाली मेरी बेटी की एक सहेली की मां से स्कूल के एक आयोजन में मुलाकात हुई। शुरूआती औपचारिकता को निभाते हुए वह कहने लगी मेरी बेटी आपकी बेटी की बेहद तारीफ करती है कि वह बहुत लायक है। फिर दूसरे ही क्षण वह मुझसे बोली लेकिन वह अपने नाम के साथ सरनेम क्यों नहीं लगाती? इससे पहले कि मैं कोई जवाब देती वहां खड़ी हम दोनों की परिचित एक अन्य महिला ने मेरी ओर इशारा करते हुए कहा अरे इनका सरनेम अलग है और इनके पति का अलग। फिर इनकी बेटी किसका सरनेम लगाए। पहली वाली महिला ने हैरत से कहा, ‘‘ऐसे कैसे हो सकता है पति- पत्नी का सरनेम तो एक ही होता है’’। मैनें थोड़ा संयत होते हुए कहा कि मैं अपनी इच्छा से अपने नाम के साथ शादी के पहले वाला सरनेम ही लगाती हूं। इतना सुनते ही शिक्षित, सभ्य और आधुनिक लिबास में लिपटी उस महिला ने अग्रेंजी में कहा, ‘‘इसमें अपनी इच्छा की बात कैसे हो सकती है, शादी के बाद तो सरनेम अपने आप ही बदल जाता है। इसमें अपनी मर्जी और नामर्जी की बात कहां से आई? हमने तो ऐसा कभी सोचा नहीं। लेकिन आपकी बेटी को तो पिता का सरनेम ही लगाना चाहिए वह ज्ञान दे रही थी ओर मैं यह सोच रही थी कि स्त्री अपने नाम को क्यों बदले इसके प्रति वह सोचना तक भी नहीं चाहती।

स्त्री पुरूष में विषमता की जड़े तो मुझे इस पढ़े लिखे वर्ग में भी कम होते दिखाई नहीं पड़ती। चुटकी से सिंदूर और मंगलसूत्र में लिपटी वह अपने को एक सधे सधाए खांचे में देखने और उस पर खरी उतरने में अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि मानती है। जिन परिवारों में महिलाओ ने ंिसंदूर ओर मंगलसूत्र को त्याग दिया है वे भी अपने अपने हर छोटे बड़े फैसले के लिए पुरूष पर ही निर्भर करती हैं। वे भी बिना किसी संकोच के। ऐसी महिलाओं का प्रतिशत कितना होगा जिनके नाम का बैंक में अपना या ज्वांइट एकाउंट होगा? कितनी प्रतिशत परिवारों में घर पति और पत्नी दोनों के नाम पर होता है? कितनी प्रतिशत महिलाएं बिना पति की आज्ञा के बैंक से पैसा निकाल पाती हैं। ऐसी महिलाओं की संख्या कितने प्रतिशत होगी जिनसे घर के अहम फैसलों में राय ली जाती हो। कुछ अपवादों को छोड़ दें तो मध्यम वर्ग की हर स्त्री अपने सामान्य परिवारिक अधिकारों को ही नहीं जानती। लेकिन इस सोच को हम चुनौती बहुत कम देते हैं। स्त्री विमर्श की बहसों में अक्सर जब मध्यम वर्ग की महिलाओं के अधिकारों की बात होती हैं तो अधिकतर बहसें भू्रण हत्याओं, महिला हिंसा पर थोड़ा ज्ञान बखारने के बाद स्त्री के यौन अधिकारो की ओर मुड़ जाती हंै। इन दिनों यह रिवायत कुछ अधिक ही दिखाई पड़ रही है। (शायद टीआरपी के खेल के चलते)। स्त्री केे यौन अधिकार एक बड़ा मसला है इससे इंकार नहीं लेकिन जिस समाज में वह पुरूष के अस्तित्व में ही अपना अस्तित्व ढूंढती हो, अपने नाम से अधिक ‘मिसेज फलां’ कहलाने में गर्व महसूस करती हो, जो अपने हर छोटे बड़े फैसले के लिए पति पर निर्भर हो औरे अपनी इच्छाओं अपने वजूद को भुलाकर जीने के आदी हो चुकी हो उनसे से उम्मीद करना कि वे पति के साथ दैहिक संबंधों में अपने सुख, अपनी इच्छा- अनिच्छा को तरजीह दे। कैसे संभव है। स्त्री को यौन सुख के अधिकार का पाठ पढ़ाने वालों के लिए जरूरी है कि वे पहले उसे अपने अस्तित्व को पहचानने की सीख दें। जब वह घरेलु हकों के साथ परिवार के आर्थिक- सामाजिक तथा अन्य छोटे बडे मसलों में फैसले लेने की हकदार बन जाएगी तो शारीरिक संबंधों में अपने सुख को तलाशने की परिपक्वता भी हासिल कर लेगी। फिलहाल तो वह परिवार में अपने अस्तित्व की पहचान कायम रखने की अधिक हकदार है।