अन्नू आनंद
आखिर यूपीए सरकार ने दुबारा सत्ता में आने के बाद अपना वादा पूरा करते हुए पंचायतों के सभी स्तरों पर महिलाओं को पचास प्रतिशत आरक्षण देने का प्रस्ताव पारित कर दिया है। सरकार के इस फैसले की प्रंशसा की जानी चाहिए क्योंकि इससे लोकतंत्र की प्रक्रिया मजबूत होने के साथ महिलाओं के लिए शहरी निकायों, विधानसभा और संसंद की राह सुलभ हो सकेगी। इस संदर्भ में संसद के अगले सत्र में विधेयक लाया जाएगा। अभी तक केवल चार राज्यों मध्यप्रदेश, बिहार, उतराखंड, और हिमाचल प्रदेश में ही महिलाओं के लिए पंचायतों में 50 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था है। शेष सभी राज्यों में 36.8 प्रतिशत सीटों पर करीब 10 लाख महिलाएं पंचायतों में मौजूद हैं। सरकार के इस फैसले के लागू होने से गावों की करीब 14 लाख महिलाएं पंचायतों के राज -काज में हिस्सेदारी कर सकेंगी। पिछले डेढ़ दशक के इतिहास को देखें तो पता चलेगा पंचायतों में भागीदारी ने ग्रामीण महिलाओं को सामाजिक और राजनैतिक रूप से सबल बनाने का काम किया है। इस सबलता के चलते ये महिलाएं गांवों की बुनियादी जरूरतों को पूरा करते हुए अपने अपने इलाकों में शराब -विरोधी, महिला हिंसा और अन्य लैंिगक भेदभावों की ओर मुखर हुई है। वर्ष 1994 में संविधान के तिरहतरवें संशोधन के जरिए लोकतं़त्र की इस पहली सीढ़ी पर महिलाओं ने कदम रखा था। डेढ़ दशक का यह सफर कोई आसान न था। पहले पांच सालों तक का समय सबसे चुनौतीपूर्ण था। यह वह दौर था जब घर की देहरी पार कर पंचायत की बैठकांे में आने वाली महिलाएं राजनीति के दांव पेच नहीं जानती थीं। अशिक्षा, अज्ञानता और समाज की पुरूषसतात्मक सोच ने इन महिलाओं के रास्तों में कम रूकावटें नहीं खड़ी कीं। वे पंचायतों की बैठकों में अकेले जाने से घबराती या किसी भी कागज पर मुहर लगाने जैसे फैसले लेने से हिचकिचातीं और ग्राम सभा का काम पतियों के भरोसे चलाती थीं। पंचायतों की महिला सरपंचों को ‘रबड़ स्टैम्प’ और उनके पतियों को ‘सरपंच पति’ कहा जाने लगा। लेकिन दूसरे चरण की शुरूआत में जब पुरूषों ने इन्हीं आरोपों का फायदा उठाते हुए उन्हें सता से बाहर करने की कोशिश की तो कुछ राज्यों में गैर आरक्षित सीटों पर भी महिलाएं जीत कर आईं। इसके अलावा बहुत सी महिलाएं धीरे -धीरे घर के पुरूष सदस्यों द्वारा पंचायत के कामकाज में दखल का विरोध करने लगीं। अब स्थिति यह है कि 86 प्रतिशत महिला प्रधान ग्राम पंचायतों की सभाओं को आयोजित करने और उसमें विकास के विभिन्न मुद्दों को उठाने का काम कर रहीं हैं। पिछले साल एसी नेल्सन ओआरजी मार्ग’ द्वारा अभी तक पंचायती राज पर कराई गई सबसे बड़ी सर्वे ने पंचायतों की महिलाओं द्वारा शिक्षा और स्वास्थ्य और अन्य जनहित मुद्दों पर मुखर होने का आंकड़ो सहित विश्लेषण किया है। सर्वे के मुताबिक करीब 58 से 66 फीसदी महिला प्रतिनिधि ग्रामीण बच्चों को स्कूलों में दाखिल कराने संबंधी कामों में जुटी हैं। इसके अलावा 41-51 प्रतिशत महिला प्रतिनिधी बीमारियों की रोकथाम के लिए अभियान चलाने और महिला स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता फैलाने के कामों में लगीं हैं जबकि बहुत सी महिलाओं ने प्रधान या वार्ड सदस्य बनने के बाद घर के विभिन्न मसलों पर उनकी राय लेने जैसे बदलावों की बात भी स्वीकारी। लेकिन हकीकत यह भी है कि बहुत सी पंचायतों में विकास से संबंधित बहुत से फैसले इसलिए लंबित पड़े हैं क्यों महिला सरपंच, उपसरपंच, मुखिया या प्रधान को पंचायत के पुरूष सदस्यों का समर्थन नहीं मिलता। निसंदेह 50 फीसदी आरक्षण के चलते बैठको में बढ़ने वाली महिला सदस्यों की संख्या से अब उनके राय मशवरे को नजरअंदाज नहीं किया जा सकेगा। जनहित के कामों में महिला नजरिए की बढ़ी ताकत का फायदा पूरे समाज को मिलेगा। लेकिन आरक्षण की अवधि कम होने के कारण इन महिलाओं को भी उन्हीं दिक्कतों का सामना करना पड़ेगा। पूर्व पंचायतीराज मंत्री मणि शंकर अययर ने स्वीकारा था कि ग्राम पंचायत में पहली बार आने वाली महिला अनुभव न होने के कारण अधिक सार्थक भूमिका नहीं निभा पाती लेकिन जब तक वह अनुभव हासिल करती है आरक्षण की अवधि खत्म हो जाती है। सर्वे के आकड़े भी इस बात के पक्षधर हैं कि महिलाओं को पर्याप्त प्रषिक्षण न मिलने और उन्हें दूसरी बार चुनाव लड़ने का मौका न मिलने के कारण वे अपनी काबिलियत साबित नहीं कर पातीं। इसलिए य िजरूरी है कि आरक्षण की अवधि बढ़ा कर 10 साल कर दी जाए। इसके अलावा इन महिलाओं को प्रशासनिक प्रशिक्षण देने के संसाधनों की तरफ भी सरकार को ध्यान देना होगा। फिलहाल इसके लिए एनजीओ की मदद से कुछ अकादमियों और प्रशिक्षण संस्थाओं की व्यवस्था है लेकिन वे मौजूदा सदस्यों को प्रशिक्षण देने के लिए ही पर्याप्त नहीं। मघ्यप्रदेश, हरियाण जैसे राज्यों में ऐसी कईं महिला सदस्य प्रशिक्षण के अभाव में अपनी सार्थकता साबित नही कर पा रहीं। बिहार, छत्तीसगढ़ सहित पंचायतों की महिलाओं ने स्वयं सहायता समूहों और जीविका अर्जन की अन्य योजनाओं से जुड़ कर गांवों का जो कायाकल्प किया है वह आने वाले समय में पंचायतों में महिलाओं की बढ़ी तादाद के साथ एक बड़ी क्रांति बन कर सामने आएगा। (यह आलेख 29 अगस्त 2009 को दैनिक जागरण में प्रकाशित हुआ है)