Sunday, 6 April 2014

चुनाव और विकास

इस बार का चुनाव विकास के नाम पर लड़ा जा रहा है. देश की मुख्य पार्टियां अपने अपने विकास के कामों की दुहाई देकर लोगों के साथ छल कर रही है.  इस बार के चुनाव ने विकास की परिभाषा ही बदल दी है. नयी परिभाषाएं गढ़ी जा रही हैं. आखिर विकास का पैमाना क्या है. पुलों का निर्माण. हाइवे, बड़े शहरों की चमचमाती सड़कें, या गाड़ियों की बढ़ती गिनती. अगर किसी भी राज्य के विकास का मापदंड शहरों में सड़कों का निर्माण, फ्लाई ओवर की गिनती में बढोतरी, उद्योगों का विस्तार और कुछ खास बढ़े उद्योगों को वितीय लाभ तो इस में कोई शक नहीं कि  अहमदाबाद, वडोदरा, भोपाल और दिल्ली जैसे बहुत से महानगरी शहरों में रहने वाले लोगों की सुख सुविधाओं में बढ़ोतरी हुई है. अगर यह विकास का आदर्श मॉडल है तो गुजरात को विकास का बेहतर मॉडल कहा जा सकता है. लेकिन अगर आर्थिक असमानता में कमी, कुपोषण में गिरावट, गरीबी रेखा में कमी या औसत खर्च और औसत मजदूरी सहित स्वास्थ्य और शिक्षा के स्तर पर देश के दूर दराज इलाकों में सुधार और देश के अति गरीब और आदिवासी लोगों की बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने की क्षमता में सुधार को आप विकास मानते हैं तो जान लें की आप को बेफकूफ बनाया जा रहा है. चुनाव में गुजरात को विकास के आदर्श मॉडल के रूप में प्रचारित किया जा रहा है. लेकिन अगर पोषण विकास का पैमाना है तो जान लें कि गुजरात में कैग(CAG) की 2013 की रिपोर्ट के मुताबिक हर तीसरा बच्चा कुपोषित है. यहाँ कुल शिशु मृत्य दर अभी भी 41 प्रति हज़ार है. देश की गरीबी रेखा करीब 32 रूपए है लेकिन गुजरात में शहरों में 10रूपए 80पैसे और शहरों में प्रति दिन 16 रूपए 80 पैसे से अधिक खर्च करने वाला गरीब नहीं है. यहाँ पर ग्रामीण इलाकों की मजदूरी अन्य कई राज्यों से कम है. सामाजिक स्तर के मापदंड भी कोई बेहतर तस्वीर नहीं प्रस्तुत करते. 2011 की जनगणना के मुताबिक लड़कों की अपेक्षा लड़कों की गिनती 890 है. जब कि देश में यह संख्या 919 है यानी गुजरात से अधिक है. यह आंकड़ा जानना भी अधिक जरूरी है क्योंकि राज्य में महिला सुरुक्षा का खास दावा किया जा रहा है.

अगर सवाल विकास का है तो महज प्रचार का विकास नहीं विकास के आंकड़ों और तथ्यों सहित जानकारी लेना भी ज़रूरी है. बार बार के प्रचार से ज़मीनी हकीकत कैसे बदलेगी         

Friday, 10 January 2014

बंधुआ मजदूरों के लिए ग्यारसी की जंग







अन्नू आनंद
जब मैंने हाल में कदम रखा तो मेरी नजर सभी पुरुषों के बीच अकेली बैठी साधारण और देहाती दिखने वाली महिला पर पड़ी. माथे पर बड़ी सी बिंदी और सिर साड़ी से ढका. लेकिन उसकी साधारण सी वेशभूषा के बावजूद उसके चेहरे की सौम्यता और अदभुत तेज उसके व्यक्तित्व को आकर्षित बना रहे थे. हाल में मौजूद दो चार शहरी महिलाओं को छोड़ कर (जिन से मैं पहले से ही परिचित थी) शेष सभी पुरुषों के बीच में उसे देख कर मैंने सोचा  कि गांव की कोई पीड़िता होगी जिसे आयोजकों ने अपनी व्यथा मीडिया को बताने के लिए बुलाया है. सेमिनार के शुरूआती दौर में जब भी मेरी निगाह उस पर पड़ी मैंने उसे बेहद दिलचस्पी और तल्लीनता से वक्ताओं को सुनते पाया.

तभी मॉडरेटर ने घोषणा की कि अब ग्यारसी बाई उर्फ ‘ग्यारसी सहरिया’ मीडिया को पिछले दिनों बंधुआ मजदूरों के छुड़ाने की घटनाओं की ताजा स्थिति और सहरिया महिलायों के साथ हुए शोषण की घटनाओं के खिलाफ हुई कार्रवाई की जानकारी देगी. नाम सुनते ही साधारण और देहाती देखने वाली वह महिला उठी और पॉवर प्वाइंट प्रसेंटेशन की मदद से मीडिया के लोगों को समझाने लगी, “अब बारां जिले में १६३ में से ५३ मजदूरों को बंधुआ मजदूरी से छुड़ाया जा चुका है. इन्हें प्रमाण पत्र भी मिल गए हैं. जिन दो लड़कियों के साथ नाहरगढ़ में रेप हुआ था. हमने उनकी रिपोर्ट पुलिस में कर दी है. पुलिस ने बात दबाने की कोशिश की लेकिन मैं और मेरी साथी महिलाओं ने मीडिया में मुद्दा उठाया. पुलिस के खिलाफ प्रदर्शन किया और आज पीड़ित लड़कियों के परिवारों को एक-एक लाख रूपए की राहत मिल गई है और आरोपी जेल में है”.
ग्यारसी बता रही थी कि उन्होंने मुख्यमंत्री को सहरिया आदिवासियों को राहत पैकेज देने की घोषणा के लिए भी तैयार कर लिया है. वह बोल रही थी और मैं मन ही मन पश्चाताप कर रही थी कि जिसे मैं बेचारी, पीड़िता और वंचित समझ रही थी वह तो मेरे जैसी शहरों की हजारों महिलाओं को ‘इम्पावरमेंट’ का वास्तविक पाठ पढ़ा रही है.

उसका वक्तव्य खत्म हो चुका था. लेकिन मेरी उसे सुनने की उत्सुकता बढ़ गई थी. सत्र के खत्म होने के बाद जैसे ही मैं उसे जानने समझने के लिए उसके पास पहुंची तो देखा कि जानी-मानी समाज सेविका और राष्ट्रीय सलाहकार समिति की सदस्य रह चुकी अरुणा रॉय ने सामने से आते हुए ग्यारसी बाई को देखते ही गले लगा लिया. एक बार नहीं तीन बार उन्होंने ग्यारसी को इस प्रकार से गले लगाया जैसे वह उसकी उर्जा और शक्ति को अपने में समेट लेना चाहती हो. उस से गले मिलने के बाद अरुणा जी के चेहरे पर आई संतोष की मुस्कुराहट और भाव से स्पष्ट था कि वह ग्यारसी से मिल कर और अधिक उर्जावान महसूस कर रही हैं. 
राजस्थान के बारां जिले की ५१ वर्षीय ग्यारसी सहरिया, महानगरों की बहुत सी जांबाज और इम्पावरड महिलाओं के लिए भी एक ऐसी मिसाल है जो हर प्रकार की विपरीत परिस्थितियों में भी नदियों की धाराओं का रुख बदलने का साहस रखती है. उसके संघर्ष, जमीनी ज्ञान और अनुभव के समक्ष महिला सबलता का हमारा किताबी और ‘सेमिनारी’ ज्ञान बौना प्रतीत हो रहा था.
वर्ष २०११ में अज़ीम प्रेमजी फाउन्डेशन और सिविल सोसायटी पत्रिका ने ग्यारसी बाई को सहरिया आदिवासियों के जीवन में बदलाव लाने के लिए ‘हाल ऑफ फेम’ पुरस्कार से सम्मानित किया. पुरस्कार के बारे में पूछने पर ग्यारसी बताती है कि “मैं पुरस्कार के बारे में अधिक नहीं जानती लेकिन अगर हम छोटे लोगों के कार्यों को पहचान मिलती है तो खुशी महसूस होती है”. पिछले २२ सालों में ग्यारसी ने सहरिया आदिवासी बाहुल्य इलाके किशनगंज और शाहाबाद के गांवों में छोटे छोटे कार्य करते हुए कई बड़े बदलाव लाने में सफल रही है. बंधुआ मजदूरों की मुक्ति ग्यारसी की सब से बड़ी उपलब्धि है.

दरअसल बारां जिले के बहुत से गांव में बंधुआ मजदूरी का अभी भी प्रचलन है. इस क्षेत्र में पंजाब और हरियाणा से आकर बसे ज़मींदार मजबूर और जरूरतमंद आदिवासियों की ज़मीन को सस्ते मोल पर खरीद लेते हैं. फिर वे उन्हें कुछ रूपए उधार देकर उसी ज़मीन पर उनसे ‘हलिया’ यानी बेगारी करते हैं. इस मजदूरी के बदले वे उन्हें गेहूं या आटा प्रति माह देते हैं. मनमाने ब्याज के कारण हर साल कर्ज की राशि बढ़ती जाती है और मजदूर आदिवासियों को पीढ़ी दर पीढ़ी बेगारी करने के लिए मजबूर रहना पड़ता है. हालाँकि कानून में बंधुआ मजदूरी पर प्रतिबंध है लेकिन इस इलाके में फ़ैली गरीबी, भुखमरी और बच्चों के लालन-पालन का मोह बहुत से परिवारों को इस बेगारी के लिए मजबूर कर देता है. ग्यारसी बाई इन मजदूरों के हकों के लिए खड़ी हुई तो उसे जिले के कई बड़े ज़मींदारों का विरोध झेलना पड़ा. उसे कई बार धमकियाँ भी मिली. लेकिन ग्यारसी डटी रही. ग्यारसी कहती है जब सरकार ने १३५ परिवारों की ६५० बीघा ज़मीन ज़मींदारों के कब्जे से छुडा कर उन्हें लौटाई तो मुझे लगा कि मुझे मेरे काम का फल मिल गया.   
कईं गांव के बंधुआ मजदूरों को मुक्त कराने के बाद उनके पुनर्वास और छुडाइ गयी ज़मीन पर खेती के सवाल को लेकर ग्यारसी कईं बार मुख्यमंत्री और श्रम विभाग के प्रमुख सचिव से मिली. आखिर उसकी लड़ाई और निरंतर प्रयासों ने प्रशासन को कार्रवाई करने के लिए मजबूर कर दिया. बारां जिले के सुंडा गांव के बंधुआ मजदूरी से मुक्त हुए बाबूलाल ने बताया, “ग्यारसी बेन और उसके साथियों ने लंबे समय तक प्रशासन, ज़मींदारों पर दबाव बनाने के बाद उसे और उसके ३५ साथियों को बेगारी से मुक्त कराया है”.  

ग्यारसी का जन्म ग्यारस यानी एकादशी को हुआ था. इसलिए उसका नाम ग्यारसी रखा गया. वह पढ़ना चाहती थी लेकिन वह स्कूल नहीं जा पाई. छोटी उमर में ही उस  पर भाई के बच्चों की देखभाल की ज़िम्मेदारी डाल दी गई. आठ साल की उमर में उसका बाल विवाह भंवरगढ़ के बक्सू सहरिया से कर दिया गया. १२ साल की उमर में जब वह ससुराल पहुंची तो पाया कि उसके समक्ष कई चुनौतियाँ थी. घर में खाने को नहीं था. ससुर किसानों के यहाँ रखवाली का काम करते थे. पति ज़मींदारों के पास ‘हाली’ थे. घर में एक समय रोटी बनती. शाम को पानी में ग्लाए गेहूं खाकर भूख मिटती थी. ग्यारसी ने पति को ज़मींदारों के पास मजदूरी करने से रोका. उसने पति को मनाया कि वे दोनो मिलकर चूने भट्ठे पर मजदूरी करेंगे. आखिर पति ने बात मानी और दोनों ने चूने की भट्ठी पर मजदूरी करने लगे. उसी दौरान इलाके की जानी- मानी सामजिक कार्यकर्ता चारु मित्रा ने महिला अधिकार और बालिका शिक्षा के सन्दर्भ में महिलाओं को संगठित करने के लिए इलाके में बैठक का आयोजन किया. इसमें भट्ठे पर काम करने वाली महिलाओं को भी बुलाया गया. उस बैठक में बैठक में जाने के लिए ग्यारसी ने घर की चारदीवारी से बाहर जो कदम रखा वह कदम उसके लिए नए जीवन की शुरुआत बन गया. बैठक में जब उसने महिला अत्याचार, समानता का अधिकार और शिक्षा के महत्व के बारे में सुना तो ग्यारसी को अहसास हुआ कि अगर उसकी जैसी सभी महिलाएं यह सीख हासिल कर लें तो समूचे परिवार और गांव को सशक्त बनाया जा सकता है.
उसने मन में ठान लिया कि वह भी महिलाओं को उनका हक दिलाने का काम करेगी.
लेकिन ग्यारसी को इसके लिए खुद को तैयार करना था. केवल इच्छा शक्ति, उत्साह और चाहत ही काफी नहीं था. मुद्दों की समझ बनना अभी बाकी था. अक्षर ज्ञान से महरूम ग्यारसी ने सब से पहले स्थानीय संस्था संकल्प द्वारा आयोजित शाहबाद तहसील के मामोनी गाँव में शिक्षा की पांच दिवसीय कार्यशाला में भाग लिया. यहाँ पर ग्यारसी ने महिला मुद्दों, अनुसूचित जाति और जनजाति से संबंधित कानूनों की जानकारी और बालिकाओं के लिए शिक्षा के महत्व के सबक को सीखा.

यह प्रशिक्षण ग्यारसी के लिए वरदान साबित हुआ. सबसे पहले उसने समुदाय की महिलाओं को शिक्षा से जोड़ा. ग्यारसी बताती है, “इस क्षेत्र के अधिकतर लोग अशिक्षित होने के कारण  ही सब से पिछड़े हैं.” अपने काम और स्वभाव से शीघ्र उसने लोगों का दिल जीत लिया. उसकी सोच, समझ और बेझिझक अपनी बात कहने के साहस ने लोगों को उसकी बात सुनने के लिए मजबूर कर दिया.
जब उसके इलाके में शिक्षा की लोक जुम्बिश परियोजना की शुरुआत हुई तो उसके लिए भवन की जरूरत महसूस की गई. एक विचार आया कि महिलाओं से ही ऐसे भवन का  निर्माण कराया जाए. ग्यारसी ने इस विचार का समर्थन किया. उसने मिस्त्री का प्रशिक्षण लेकर भवन के निर्माण में सहयोग दिया. इसके बाद वह ब्यावर से शुरू हुए सूचना के अधिकार आंदोलन से जुड़ी. झालावाड़ के अकेलरा में कुछ भ्रष्ट लोगों ने ग्यारसी को अपनी राह का रोड़ा मानते हुए उस पर हमले भी किये. वह घायल भी हुई लेकिन उसने अपने हौंसले को टूटने नहीं दिया. फिर उसने महिला जागरण संगठन नाम का एक समूह बनाकर उड़ीसा की नीलगिरी पहाड़ियों पर बसे लोगों के हकों के लिए वहां जाकर आवाज़ उठायी.

सहरिया बाहुल्य क्षेत्र में बसे खैरुआ जाति को अनुसूचित जाति का दर्जा दिलाने में ग्यारसी की अहम भूमिका रही. जब मनरेगा का काम गांव में शुरू हुआ तो वह सहरिया समुदाय के लोगों को १०० दिन की बजाय २०० दिन का रोजगार मुहैया कराने के लिए पंचायत से लेकर राज्य स्तरीय प्रशासनिक अधिकारियों से मिलती रही.  .
शाहबाद और किशनगंज क्षेत्र को आदिवासी क्षेत्र घोषित कराने, वन भूमि पर काबिज लोगों को वन अधिकार अधिनियम २००५ के तहत पट्टे दिलाने के लिए जिला, राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर उसने अपनी आवाज़ उठाई. इसके लिए वह सोनिया गाँधी, राहुल गाँधी और राजस्थान के मुख्यमंत्री से भी मिली. ग्यारसी अब तक इतने मुद्दे उठा चुकी है कि राजस्थान के मुख्यमंत्री, पंचायती राज और ग्रामीण विकास मंत्री ग्यारसी की आवाज़ को ही नहीं बल्कि उसके संकल्प की दृढ़ता को भी पहचानते हैं. हार्वड विश्वविधालय में ग्यारसी के काम को विशेष केस स्टडी के तौर पर पढ़ाया जा रहा है.
लेकिन मुझे अफ़सोस इस बात का है कि छोटी छोटी जगहों पर बड़े बड़े बदलाव लाने वाले ग्यारसी जैसी सेलेब्रिटी जो अपने इलाके के बहुत से युवाओं के रोल मॉडल बन चुके हैं, मेनस्ट्रीम मीडिया के हीरो नहीं बन पाते भले ही उनकी राह किसी भी बॉलीवुड हीरो से कहीं अधिक कठिन होती है.