Tuesday, 26 April 2011

लड़कियों के प्रति यह नफरत क्यों?






अन्नू आनंद

भारत में लड़कियों के लिए कोई जगह नहीं। स्वयं को सुॅपरपावर कहलाने वाले और आर्थिक प्रगति के राग अलापने वाले इस देश का लड़कियों के प्रति नजरिया नफरत भरा है। देश की आधी आबादी के प्रति यह तंग और घटिया सोच हमें कईं पिछड़े देशों की कतार में खड़ा करती है। 2011 की जनगणना के आंकड़े साबित करते हैं कि लड़कियों के प्रति देश के अधिकतर लोगों की सोच बेहद संकुचित और शर्मनाक है इसलिए गर्भ में ही उसे खत्म करने का सिलसिला बढ़ता ही जा रहा है।

जनगणना के मुताबिक 6वर्ष की आयुवर्ग में लड़कियों की संख्या में आजादी के बाद से अभी तक सबसे अधिक गिरावट आई है। आंकड़ो में लड़कियों की गिनती 1000 लड़कों पर 914 है। जबकि 2001 की जनगणना में यह संख्या 927 थी यानी 13 अकों की गिरावट है। इसी जनगणना के आंकड़े बताते हैं कि  देश के 27 राज्यों सहित दिल्ली और अन्य केंद्र शासित प्रदेशों में सामान्य से लेकर खतरनाक स्तर तक की गिरावट आई है जो यह साबित करती है कि कन्या भ्रूण हत्या के खिलाफ चलाए जाने वाले अभी तक के सभी प्रयास विफल रहे हैं। संपन्न राज्य हरियाणा और पंजाब में लड़कियों की गिनती सबसे कम क्रमश 774 और 778 है। साफ जाहिर है कि लड़की को हीन मानने का कारण महज गरीबी और शिक्षा ही नहीं। राजस्थान में स्वयंसेवी संगठनों को कन्या भू्रण हत्याओं पर रोक लगाने के प्रयासों के लिए भारी फंडों का वितरण किया गया था। इसके बावजूद यहां लड़कियों के अनुपात में कमी आई है। यह अनुपात 2001 में 909 था लेकिन अब 2011 में कम होकर 883 हो गया है। पूरे देश में लड़कियों की संख्या में यह गिरावट कईं बड़े और गंभीर सबक देती है।

सबसे बड़ी बात तो यह भी समझने की है कि भू्रण परीक्षणों पर रोक लगाने के लिए किए गए कानूनी और सामाजिक प्रयासों में अमलीकरण के स्तर पर बेहद सुराख रहे। गर्भ में लड़का है या लड़की का पता लगाने के बाद लड़की के भू्रण को गर्भ में खत्म करने की प्रवृति पर रोक लगाने के लिए 1994 में भू्रण परीक्षण निवारण कानून बना। इसे और सख्त बनाने के लिए तथा गर्भ ठहरने से पहले ही लिंग का निर्धारण करने वाली तकनीकों पर भी रोक लगाने के लिए 1996 में इस कानून में संशोधन भी किया गया। लेकिन अमलीकरण के स्तर पर कामयाबी नहीं मिल सकी। इसकी एक वजह कानून के लचीले प्रावधान हैं। दूसरा इसको अमल में लाने के लिए सरकार का रवैया बेहद ढीला रहा। विभिन्न राज्यों में कानून के क्रियान्वयन पर नजर रखने वाले केंद्रीय सर्तकता बोर्ड के गठन में ही सरकार ने कईं साल बरबाद कर दिए। बोर्ड बनने के बाद उनकी बैठकें भी उसी सुस्त चाल में चली। गैर रजिस्टर्ड अल्ट्रासाउंड मशीनों को जब्त करने के प्रयासों के अभाव के कारण इन की गिनती बढ़ती जा रही है। मोबाइल मशीनों ने लिंग परीक्षणों की संख्या में और भी बढ़ोतरी की है। पूरे देश में अभी तक केवल 15 डाक्टरों के खिलाफ ही मामलों की सुनवाई हुई है। जबकि मेडिकल पत्रिका लांसेट की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में हर साल मारी जानी वाली लड़कियों की गिनती 5 लाख है। ये तथ्य साबित करते है कि कानून को एक कारगर हथियार के रूप में इस्तेमाल करने में देश पूरी तरह से विफल रहे है और अब इसको प्रभावी बनाने के लिए इसके अमलीकरण पर नए सिरे से सोचने की जरूरत है।      

 लड़कियों के भू्रणों को खत्म करने की प्रवृति संपन्न राज्यों के संपन्न परिवारों में अधिक बढ़ी है जो यह दर्शाती है कि गरीबी ही लड़की को मारने का कारण नहीं। 2008 में हुई एक सर्वे ने इस संदर्भ में सरकार को चेताने का काम करते हुए अपनी रिपोर्ट में साफ बताया था कि संपन्न समझे जाने वाले राज्य पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, मध्यप्रदेश, के अधिकतर जिलों में लड़कियों का अनुपात वर्ष 2001 की जनगणना से भी कम हो रहा है। पंजाब मेें स्थिति सबसे गंभीर पाई गई थी। यहां केे कुछ इलाकों में धनी पंजाबी परिवारों में 1000 लड़कों पर लड़कियों की संख्या महज 300 ही थी। लेकिन महिला पुरूष बराबरी के प्रति जागरूकता फैलाने वाले अधिकतर अभियानों का फोकस निम्न वर्ग तक ही रहा।

हकीकत यह है कि चाहे उच्च वर्ग का शिक्षित परिवार हो पिछड़े वर्ग का गरीब और अनपढ़ परिवार, लड़कियों की चाहत के प्रति दोनों की सोच में कोई अंतर नहीं। इसलिए केवल गरीबी और अशिक्षा को लड़कियों की संख्या कम होने के लिए दोषी ठहराना उचित नहीं। देखा जाए तो पिछले एक दशक से देश में शिक्षा का विस्तार हुआ है। साक्षरता बढ़ी है। 2011 की जनगणना के आंकड़े बताते हैं कि पिछले एक दशक में महिलाओं का साक्षरता प्रतिशत 64 से बढ़कर 74 हो गया है। पुरूषों का 82 फीसदी तक पहुंच गया है। स्कूलों की संख्या में भी बढ़ोतरी हुई है। सूचना के बढ़ते माध्यमों ने जानकारियां हासिल करने के क्षेत्र का विस्तार किया है। लेकिन इस सब के बावजूद लड़की के प्रति सोच पर अभी भी जंग लगा हुआ है।

इसका जो बड़ा कारण समझ में आता है वे हमारी पुरानी परपंराए और पुरूष प्रधान समाज है। पुरूषसतात्मक समाज में अभी भी एक मध्यवर्गीय परिवार में लड़की कोे लड़के के बराबर का दर्जा नहीं मिला। भले ही महिलाएं देश के राष्ट्रपति स्पीकर जैसे सर्वोच्च पदों पर पहुंच रही हांे, परीक्षाओं में लड़कांे से आगे निकल रही हो, देश में तगमों की गिनती बढ़ा रही हो। लेकिन आम परिवार में लड़के को अहमियत देने की रिवायत में बदलाव नहीं हो रहा।  महज एक या दो फीसदी परिवारों को अपवाद मान लें तो शेष सभी परिवारों में लड़के को वंश आगे बढ़ाने और विरासत मानने की प्रवृति उसे अधिक अहमियत दिलाती है। दो साल पहले दिल्ली की सेंटर फाॅर सोशल रिसर्च संस्था और स्वास्थ्य कल्याण मंत्रालय ने दिल्ली में लिंग अनुपात से जुड़े आर्थिक ,सामाजिक और नीति संबंधी कारणों की जांच करने के लिए एक सर्वे कराई। सर्वे के नतीजों से पता चला कि पुराने रीति रिवाज और पारिवारिक परंपराओं के कारण दिल्ली में अधिकतर परिवार लिंग निर्धारित गर्भपात कराते हंै। दिल्ली में लड़कियों के कम अनुपात वाले तीन क्षेत्र नरेला, पंजाबी बाग और नजफगढ़ में कराई गई सर्वे में सभी लोगों ने जिनमें अनपढ़, कम पढ़े-लिखे और उच्च शिक्षा ग्रहण करने वालों नेे माना कि उनके परिवारों में लड़की की बजाए लड़के के जन्म को अधिक बेहतर माना जाता है। इसकी वजह के बारे में इन लोंगो ने साफ माना कि बेटा मरने के बाद अतिंम रस्मों को पूरा कर मोक्ष दिलाता है। इसके अलावा परिवार का नाम भी आगे बढ़ाता है। सर्वे के नतीजों से साफ था कि गरीब और पिछड़ा वर्ग अगर लड़की को आर्थिक बोझ के रूप में देखता है तो मध्य और उच्च वर्ग के संपन्न लोग लड़के को अपनी संपति का वारिस और अतिंम रस्मों को पूरा करने का जरिया मानते हैं। दूसरा लड़की को दिया जाने वाला दहेज लड़के के लिए बेयरर चेक का काम करता है।

लड़कियों को पिता की संपति में समान हक का कानूनी अधिकार भले ही मिल गया हो लेकिन ऐसे परिवारों की संख्या कितनी है जहां लड़कियों को लड़कों के बराबर संपति का वितरण हुआ हो। लड़कियों द्वारा मां- बाप के अतिंम संस्कार करने के भी छिटपुट प्रयास शुरू हो चुके हैं लेकिन ऐसे प्रयासों को ओर बढ़ावा मिलने की जरूरत है। परिवार में लड़की हर पहलु से लड़के के बराबर है यह समझ बनाने के लिए विवाह के बाद उसके सरनेम यानी उपनाम को न बदलना और घर के हर छोटे बड़े फैसले में पत्नी की राय को बराबर अहमियत देना जैसी प्रवृतियों को शामिल करना होगा।

एक्शन एड द्वारा देश के पांच खुशहाल माने जाने वाले राज्यों पंजाब राजस्थान, मध्य प्रदेश, हिमाचल, हरियाणा के विभिन्न जिलों में की गई एक सर्वे बसे सह भी पता चलता है कि जिन इलाकों में स्वास्थ्य सुविधाएं और अल्ट्रासांउड मशीनों की पहुंच नहीं है, उन इलाकोे में लड़कियां पैदा तो हो जाती हैं लेकिन जीवित कम बचती हैं। इसके लिए पैदा हुई लड़कियों को या तो बीमार होने पर मेडिकल सहायता नहीं दी जाती या फिर ऐसे तरीके अपनाए जातें हैं कि वे जीवित न बचें। इस सर्वे से यह भी पता चलता है कि परिवारों में दूसरे बच्चे के रूप में भी लोग लड़का ही चाहते हैं।

सर्वे किए गए सभी इलाकों में पैदा हुए दूसरे बच्चे में लड़कियों की संख्या बहुत कम थी। इसी प्रकार तीसरे नंबर पर पैदा हुए बच्चों में लड़कियों की संख्या 750 से भी कम थी। 2011 की जनगणना में जनसंख्या के कम होते आंकड़ो से भी पता चलता है कि लोगों में सीमित परिवार रखने की प्रवृति बढ़ रही है। लेकिन इससे लड़के की चाह में कमी नहीं आई है।

लड़कियों की कम होती संख्या का सबसे भयावह परिणाम यह भी हो सकता है कि आने वाले समय में लड़कों को अपने विवाह के लिए लड़कियों को बाहर देश से आयात करना पड़े।  हरियाणा और पंजाब के कईं गावों में लड़को को दुल्हनें नहीं मिल रही। इसके लिए उन्हें बिहार झारखण्ड सहित उतर पूर्वी राज्यों से दुल्हनों को लाना पड़ रहा है। राजस्थान के जैसलमेर जिले का देवरा गांव 110 सालों के बाद किसी बारात का स्वागत करने की पदवी हासिल कर चुका है। अगर लड़कियों के प्रति नफरत का यह सिलसिला थमा नहीं तो वे दिन दूर नहीं जब देश के अन्य इलाकों में भी लड़कांे को अपने लिए दुल्हन पाने के लिए सैंकड़ों सालों तक इंतजार करना पड़े।    


स्वतंत्र स्तंभकार

यह लेख दैनिक जागरण में अप्रैल २०११ में  प्रकाशित हुआ है