अन्नू आनंद
कुलपति जैसे प्रतिष्ठित पद पर रहते हुए कोई ऐसे शब्दों का इस्तेमाल कर सकता है। यह सोच कर भी आश्चर्य होता है। इन शब्दों ने केवल महिला लेखिकाओं का ही नहीं समूचे महिला समाज का अपमान किया है।
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविधालय जैसा संस्थान जिस पर हिंदी भाषा को अन्य देशों में प्रतिष्ठित करने की जिम्मेदारी हो वहां का कुलपति देश की लेखिकाओं के लिए ‘छिनाल’ जैसे शब्द का इस्तेमाल करे और उसे एक प्रतिष्ठित संस्थान साहित्य संसथान की पत्रिका प्रकाशित भी करे तो समझ में आ जाना चाहिए कि शिक्षा और साहित्य का स्तर किस हद तक गिर गया है। शालीनता की सभी हदें पार कर किसी भी लेखिका के लिए ऐसे शब्दों का इस्तेमाल दिमागी दिवालियापन और घटिया सोच की निशानी है और ऐसे पुरूषों को ऊंचें पदों पर बने रहने का कोई अधिकार नहीं।
अपने वक्तव्य के बचाव में दिए गए कुलपति के तर्क भी संतोषजनक नहीं है।
अपने बचाव में वे कहते हैं इस शब्द का इस्तेमाल प्रेमचंद कई बार कर चुके हैं। हांलाकि मेरा साहित्य में कोई दखल नहीं है लेकिन कुलपति जी जो साहित्यकारों की जमात में अच्छा रसूख रखते हेैं यह कैसे भूल गए कि प्रेमचंद की कहानियों मंे इस्तेमाल इस शब्द का संदर्भ दूसरा रहा है। कहानी का पात्र किस पृष्ठभूमि में और किस संदर्भ के तहत इस शब्द का इस्तेमाल कर रहा है यह सही सोच रखने वाला कोई भी व्यक्ति समझ सकता है। उन्होंने कुलपति की तरह कभी अपनी किसी टिप्पणी में महिलाओं या लेखिकाओं के लिए ऐसे शब्दों का इस्तेमाल नहीं किया।
अपने बचाव में उन्होंने एक अखबार को दूसरा तर्क देते हुए कहा कि उन्होंने किसी एक विशेष लेखिका के लिए नहीं बल्कि बहुत सी लेखिकाओं के लिए इसका इस्तेमाल किया है यानी गाली एक को नहीं बहुत सी महिला लेखिकाओं को दी गई है। क्या बहुत सी महिलाओं के लिए ये शब्द तर्कसंगत हैं?
उनका कहना है कि बहुत सी लेखिकाएं स्त्री विमर्श के सवाल पर केवल देह से मुक्ति पर विमर्श को केंद्रित रखती हैं। इसलिए उन्होंने ऐसे विचार रखे। यह आपति भी जायज नहीं। स्त्री विमर्श का फोकस क्या होना चाहिए इसपर उनके अपने विचार हो सकते हैं। जिस पर बहस की जा सकती है। लेकिन कोई भी लेखिका अपनी आत्मकथा में या अपने लेखों में किस प्रकार की मुक्ति को वरीयता दे यह उसकी अपनी अभिवयक्ति की आजादी का मसला है। अगर वह देह की मुक्ति को अपना विषय बनाती है तो क्या उसकोेे गालियां दी जाएं ? इसका सीधा सा अर्थ यह है कि कोई लेखिका क्या लिखे इसके लिए भी उसे मर्दों से राय लेनी होगी। महिलाओं के प्रति उनकी यह टिप्पणी अपरोक्ष रूप से उसी कट्टरपंथी सोच को प्रतिबिंबित करती है जो कभी महिलाओं को पब न जाने की हिदायत देती है तो कभी अकेले मंदिर में न जाने की नसीहतें। कभी राजनीति से दूर रहने में ही महिलाओं का भला मानती है। अब वार महिलाओं के लेखन पर है और वह भी गालियों के साथ। यानी अब लेखन पर पाबंदी के लिए गालियों का सहारा।
ताकि महिलाएं कुछ भी लिखने से पहले ऊंचे ओहदों मंे बैठे ऐसे मर्दों से खौफ खाएं जो उनकी आवाज को दबाने के लिए किसी भी स्तर तक गिर सकते हैं। लेकिन इन मर्दों के लिए एक नसीहत महिला यह बखूबी जान चुकी है कि पाबंदियों के घेरों से कैसे निकलना है, मर्दों के बनाए रूढ़ीवादी खांचों को कैसे तोड़ना है और अपने रास्तों को कैसे चुनना है अगर चाहें तो उसके हौंसलों के साथ खड़ा होना सीखें। उनकी बढ़ती हैसियत से खार खाकर उनमें फच्चर फसाने की कोशिशें बहुत मंहगी पड़ सकती हैं। महिलाओं का चरित्रहनन कर उन पर लगाम लगाने का पुराना और घटिया नुस्खा अब औेर नहीं चलेगा कुलपति जी!