अनसुनी आवाज़ उन लोगों की आवाज़ है जो देश के दूर दराज़ के इलाकों में अपने छोटे छोटे प्रयासों के द्वारा अपने घर, परिवार समुदाय या समाज के विकास के लिए संघर्षरत हैं। देश के अलग अलग हिस्सों का दौरा करने के बाद लिखी साहस की इन कहानियों को मैं अख़बारों और इस ब्लॉग के माध्यम से अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचाना चाहती हूँ क्योंकि ये खामोश योधाओं के अथक संघर्ष की वे कहानियाँ हैं जिनसे सबक लेकर थोड़े से साहस और परिश्रम से कहीं भी उम्मीद की एक नयी किरण जगाई जा सकती है।
Monday, 17 November 2008
फिर कम हो रही हैं लड़कियां
अन्नू आनंद
राजधानी दिल्ली सहित देश के विभिन्न उत्तरीय राज्यों में लड़कियों को गर्भ में खत्म करने का सिलसिला जारी है। लड़कियों के भू्रणों को खत्म करने की यह प्रवृति संपन्न राज्यों के संपन्न परिवारों में अधिक बढ़ रही है। हाल ही में हुई एक सर्वे के मुताबिक पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, मध्यप्रदेश, के अधिकतर जिलों में लड़कियों का अनुपात वर्ष 2001 की जनगणना से भी कम हो रहा है। पंजाब में स्थिति और भी खराब है। यहां के कुछ इलाकों में धनी पंजाबी परिवारों 1000 लड़कों पर लड़कियों की संख्या 300 ही पाई गई है।
चाहे उच्च वर्ग का शिक्षित परिवार हो पिछड़े वर्ग का गरीब और अनपढ़ परिवार लड़कियों की चाहत के प्रति दोनों की सोच में कोई अंतर नहीं दिखाई पड़ता इसलिए केवल गरीबी और अशिक्षा को लड़कियों की संख्या कम होने के लिए दोषी ठहराना उचित नहीं। वर्ष 2001 की जनगणना से यह पहले ही साफ साबित हो चुका है कि कन्या भ्रूणों को खत्म करने की रिवायत संपन्न इलाकों में अधिक है। इस जनगणना में पंजाब, हरियाणा, दिल्ली और गुजरात में लड़कियों की संख्या 900 से भी कम पाई गई। इस में फतेहगढ़ साहिब में 1000 लडकों के पीछे 766 लड़कियों की संख्या थीं लेकिन अब यह कम होकर 734 तक पहुंच गई है। इसी प्रकार हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा में यह 836 से कम होकर 789 पहुंच गई है। ऐसी ही प्रवृति अन्य संपन्न इलाकों में भी पाई गई।
देखा जाए तो पिछले सात वर्षो में देश में शिक्षा का विस्तार हुआ है। स्कूलों की संख्या में बढ़ोतरी हुई है। महिलाओं की साक्षरता के आंकड़ो का ग्राफ भी बड़ा है। देश की आर्थिक वृद्दि दर 9 तक पहुच गई है। देश सुपर पावर बनने का दावा कर रहा है। सूचना क्रांति से लोगों में जागरूकता बढ़ने का अनुमान लगाया जा रहा है। लेकिन इस सब के बावजूद लड़की के प्रति सोच पर अभी भी जंग लगा हुआ है। लड़कियों को गर्भ में ही खत्म करने की प्रवृति का सबसे बड़ा कारण वह रिवायत हैं जो लड़के को वंश आगे बढ़ाने और विरासत के रूप में देखती है। दूसरा लड़की को दिया जाने वाला दहेज जो लड़के के लिए बेयरर चेक का काम करता है।
दिल्ली की सेंटर फाॅर सोशल रिसर्च संस्था ने स्वास्थ्य और कल्याण मंत्रालय के सहयोग से हाल ही में दिल्ली में लिंग अनूपात से जुड़े आर्थिक ,सामाजिक और नीति संबंधी कारणों की जांच करने के लिए एक सर्वे कराई। सर्वे की रिर्पोट के मुताबिक पुराने रीति रिवाज और पारिवारिक परंपराओं के कारण दिल्ली में अधिकतर परिवार लिंग निर्धारित गर्भपात कराते हंै। दिल्ली में लड़कियों के कम अनुपात वाले तीन क्षेत्र नरेला, पंजाबी बाग और नजफगढ़ में कराई गई सर्वे में सभी अनपढ़, कम पढ़े-लिखे और उच्च शिक्षा ग्रहण करने वाले उतरदात्ताओं ने माना कि लडकी की बजाए लड़के के जन्म को परिवार में अधिक बेहतर माना जाता है क्योंकि वह मरने के बाद अतिंम रस्मों को पूरा कर मोक्ष दिलाता है। इसके अलावा परिवार का नाम भी आगे बढाता है। सर्वे के नतीजे साफ इस बात की ओर इशारा करते हैं कि गरीब और पिछड़ा वर्ग अगर लड़की को आर्थिक बोझ के रूप में देखता है तो मध्य और उच्च वर्ग के संपन्न लोग लड़के को अपनी संपति का वारिस और अतिंम रस्मों को पूरा करने का जरिया मानते हैं।
इसी प्रकार कुछ माह पहले एक्शन एड द्वारा देश के पांच खुशहाल माने जाने वाले राज्यों पंजाब राजस्थान, मध्य प्रदेश, हिमाचल, हरियाणा के विभिन्न जिलों में की गई एक अन्य सर्वे सेे भी स्पष्ट होता है कि सभी दावों और प्रयासों के बावजूद लड़की को ‘अनचाही’ मानने की प्रवृति बढ़ती जा रही है। सर्वे में पाया गया कि मौजूदा समय में इन राज्यों में लड़कियों का अनुपात लड़कांे की अपेक्षा कम ही नहीं है बल्कि 2001 की जनगणना के बाद से शहरी क्षेत्रों में और कम हो रहा है। केवल राजस्थान को छोड़कर शेष सभी चार राज्यों में पहले से ही लड़कियों की कम संख्या में और भी कमी आ रही है। हांलाकि राजस्थान में भी यह आंकड़ा अभी औसत राष्ट्रीय अनुपात 1000 पर 927 लड़कियों तक नहीं पहुंच पाया। सर्वे से पता चलता है कि जिन इलाकों में स्वास्थ्य सुविधाएं और अल्ट्रासांउड मशीनों की पहुंच नहीं है, उन इलाकोे में लड़कियां पैदा तो हो जाती हैं लेकिन जीवित कम बचती हैं। इसके लिए पैदा हुई लड़कियों को या तो बीमार होने पर मेडिकल सहायता नहीं दी जाती या फिर ऐसे तरीके अपनाए जातें हैं कि वे जीवित न बचें। जैसे मध्यप्रदेश के मुरैना इलाके में बच्चे की नाड़ को जानबूझ कर इन्फेक्शन के लिए छोड़ने जैसी घटनाओं का पता चला है ताकि ‘अनचाही’ बच्ची से छुटकारा मिल सके। सर्वे किए गए सभी इलाकों में पैदा हुए दूसरे बच्चे में लड़कियों की संख्या बहुत कम थी। इसी प्रकार तीन इलाकों में तो तीसरे नंबर पर पैदा हुए बच्चों में लड़कियों की संख्या 750 से भी कम थी।
जिस प्रकार से पिछले एक वर्ष में उड़ीसा और चण्डीगढ़ से अजन्मी बच्चियों के फेंके गए भू्रण पाए जाने की घटनाएं सामने आई हैं उससे पता चलता है कि लड़की को लेकर समाज के किसी वर्ग की सोच में बदलाव नहीं आया। लांसेट की रिर्पोट के मुताबिक भारत में हर साल 5 लाख लड़कियों का गर्भपात किया जा रहा है। लिंग निर्धारण तकनीकों की अधिक उपलब्धता हांलाकि इसका एक बड़ा कारण है। इसके लिए 1994 मे बना भू्रण परीक्षण निर्वारण कानून भी अधिक सहायक साबित नहीं हो रहा क्योंकि अल्ट्रासाउंड मशीनों का इस्तेमाल, लिंग परीक्षण के लिए करने वाले डाक्टरों के खिलाफ कार्रवाई के अधिक मामले सामने नहीं आ रहे। दरअसल इस की एक वजह यह भी है कि भू्रण परीक्षण एक निहायत ही निजी मामला है। इस प्रक्रिया में पति पत्नी और डाक्टर के अलावा अन्य कोई भी व्यक्ति मौजूद नहीं रहता। ऐसे में न तो परीक्षण करने वाले और न ही कराने वाले का पता चल सकता है। कानून को प्रभावी बनाने के लिए अधिक जरूरत महिलाओं के स्तर को उठाने की है। जिस प्रकार से लड़की से लड़के को अधिक प्राथमिकता देने की प्र्रवृति हर वर्ग में बढ़ती जा रही है उससे यह साफ जाहिर होता है कि समाज में महिलाओं का निम्न स्तर इस बुराई की सबसे बड़ी जड़ हैै। इस से निपटने के लिए लड़की के सामाजिक, आर्थिक अधिकारों को समान स्तर पर लाना होगा। लड़कियों को पिता की संपति में समान हक का कानूनी अधिकार भले ही मिल गया हो लेकिन इसे अमल में लाने वाले प्रयासांे को प्रोत्साहित करने की जरूरत है। लड़कियों द्वारा मां- बाप के अतिंम संस्कार करने के भी छिटपुट प्रयास शुरू हो चुके हैं लेकिन ऐसे प्रयासों को ओर बढ़ावा मिलने की जरूरत है। परिवार में लड़की की अहमियत किसी भी प्रकार से लड़कों से कम नहीं, इस सोच को हर प्रकार से विकसित करना होगा। जब तक हर मोर्चे पर लड़की के स्तर को उठाने की प्रक्रिया शुरू नहीं होगी लड़कियों के गायब होने की संख्या कम नहीं होगी।
लेखिका प्रेस इंस्टीट्यूट की पत्रिका ग्रासरूट और विदुर की संपादक रही हैं
Thursday, 13 November 2008
प्रतिबंध के बावजूद
छोटू और मोनू जैसे असंख्य बच्चों के नाम जो बाल दिवस की खुशी से कोसों दूर हैं
अन्नू आनंद
पिछले दिनों गुड़गांव के एक घर में काम करने वाली बच्ची लखी को मालिकों द्वारा निर्ममता से पीटे जाने की घटना ने एक बार फिर घरों में काम करने वाली असंख्य बच्चियों की सुरक्षा पर सवाल खड़े कर दिए हैं। अक्तूबर माह में घरेलू बाल मजदूरी पर लगे प्रतिबंध को दो साल पूरे हो गए। लेकिन घरों और ढाबों में काम करने वाले बच्चे अभी भी हिंसा और शोषण के माहौल में जी रहे हैं। दिल्ली-जयपुर हाईवे के एक ढाबे में काम करने वाले 10 साल के मोनू की दिनचर्या में कोई बदलाव नहीं आया। उसके दिन की शुरूआत सुबह चार बजे होती है। अपने छोटे छोटे हाथों से भारी भरकम बर्तन मांजने, फिर मेज कुर्सियां लगाने के बाद भाग भाग कर ग्राहकों को चाय, पानी पिलाने और खाना खिलाने में उसका पूरा दिन बीत जाता है। मोनू यह नहीं जानता कि दिन भर जो मेहनत वह कर रहा है वह उसका हकदार नहीं और और ऐसा करना या कराना अपराध है। सरकार ने दो साल पहले वर्ष 2006 में 14 साल से कम उमर के बच्चों का घरों, ढाबों और होटलों पर काम करने पर प्रतिबंध लगा दिया था। लेकिन इस प्रतिबंध के बावजूद आज भी देश भर में मोनू जैसे करीब 1.3 करोड़ (अधिकारिक आंकड़ांे के मुताबिक) बच्चे अभी भी पढ़ने की उमर में मानसिक और शारीरिक शोषण का शिकार हो रहे हंै। गैर सरकारी सूत्रों के मुताबिक यह संख्या 6करोड़ से ऊपर है।
काम करने वाले बच्चों का आंकड़ा करोडों़ में है। लेकिन सरकारी मशीनरी पिछले 19 महीनों में सारे देश में से केवल 6782 बच्चों को ही बचा सकी। कुल मिलाकर आठ हजार के करीब ऐसे मामलों का पता चला जिनमें कि सरकारी प्रतिबंध के बावजूद बच्चों से काम कराया जा रहा था। लेकिन इनमें से भी केवल 1680 मालिकों के खिलाफ ही मामला दर्ज किया गया। इस नियम को लागू करने की जिम्मेदारी श्रम मंत्रालय पर है। लेकिन श्रम मंत्रालय की ‘काबिलियत’ का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि राजधानी दिल्ली में ऐसे इस कानून का उल्लघंन करने वाले केवल 26 मामलों का ही पता लगाया जा सका। उन में से भी 12 मामले ही दर्ज हुए। जबकि दिल्ली में गैर सरकारी आंकड़ो के मुताबिक काम करने वाले बच्चों की संख्या 10 लाख बताई जाती है। बहुत से राज्यों में बचाए गए बच्चों का रिकार्ड भी उपलब्ध नहीं। जिन राज्यों मंे पता लगाए गए मामलों की संख्या अधिक है वहां भी बहुत कम मामलों मंे ही मुकदमा चलाया गया। जैसे उत्तर प्रदेश में अधिनियम का उल्लघंन करने वाले 726 मामलों का पता लगाया गया लेकिन मुकदमा केवल 92 मामलों में ही चला।
बाल मजदूरी (उन्मूलन एवं प्रतिषेध) अधिनियम 1986 की खतरनाक श्रेणी में मौजूद 13 व्यवसायों में घरेलू नौकर, होटलों और स्पा को शामिल करने का मुख्य मकसद यह था कि कम आयु में बच्चों को काम की कठोर स्थितियों से बचाकर उन्हें स्कूलों का रास्ता दिखाया जाए। ग्रामीण इलाकों में स्कूलों में बढ़ते ड्राप -आउट का एक बड़ा कारण यह भी है कि मां बाप बच्चों को शहरों में भेजकर उन्हें काम पर लगाने में अधिक दिलचस्पी दिखाते हैं ताकि उन्हें घर की कमाई में मदद मिल जाए। सेव द चिल्ड्रन संस्था द्वारा पिछले साल कराई गई एक सर्वे में बताया गया है कि दिल्ली और कोलकाता में घरों में काम करने वाले बाल मजदूरों में अधिकतर संख्या लड़कियों की है जो देश के विभिन्न हिस्सों से काम करने के लिए इन शहरों में पहुंचती हैं। सर्वे से पता चला कि 68 प्रतिशत बच्चे मारपीट के शिकार हुए और 47 प्रतिशत बच्चे मारपीट के कारण कई बार जख्मी हो चुके थे। उम्मीद यह की जा रही थी कि घरेलु बाल मजदूरी पर प्रतिबंध के चलते घर की चारदीवारी में जुल्म सहने वाले बहुत से बच्चों को राहत मिलेगी। बाल अधिकारों के समर्थकों का भी मानना था कि इस प्रतिबंध के बाद स्कूलों में बच्चों की भर्ती बढ़ेगी। प्रतिबंध के मुताबिक इसका उल्लघंन करने वाले किसी भी व्यक्ति को बाल मजदूरी (उन्मूलन एवं प्रतिषेध) अधिनियम 1986 के तहत तीन माह से दो साल की साल की कैद और 10 से 20 हजार रूपए का जुर्माना हो सकता है। लेकिन हैरत की बात यह है कि जो मुकदमे दर्ज भी हुए हैं उनमें अभी तक किसी भी मामले में किसी व्यक्ति को सजा मिलना का मामला सामने नहीं आया। बाल अधिकार से जुड़ी संस्थाएं इस बात से सहमत हैं कि प्रतिबंध प्रभावी साबित नहीं हो सका। श्रम मंत्रालय का मानना है कि उनके पास संसाधनों की कमी है इसलिए जल्द कुछ कर दिखाना संभव नहीं। लेकिन बाल मजदूरी से जुड़े अधिनियमों के अनुभव इस बात के गवाह हैं कि प्रतिबंध से वांछित सफलता की उम्मीद उचित नहीं।
होटलों और घरों में बच्चों के काम करने पर प्रतिबंध लगे दो साल ही बीते हैंै इसलिए सरकारी अमला कम समय की दुहाई देकर अपना पल्ला झाड़ सकता है लेकिन बाल मजदूरी उन्मूलन अधिनियम 1986 को लागू हुए कईं साल बीत गए फिर भी पटाखे, फुटबाल और कालीन बनाने से लेकर अन्य खतरनाक उधोगांे में आठ सालों के भीतर केवल 22588 मामलों में ही कार्रवाई की गई जबकि इन सभी उधोगों में काम करने वाले बाल मजदूरों की संख्या 6.70 करोड़ (गैर सरकारी आंकड़ों के मुताबिक) है। बाल अधिकारों पर काम करने वाली बचपन बचाओं संस्था के हाल ही में कराए गए एक अध्ययन के मुताबिक मेरठ, जालंधर सहित उत्तर प्रदेश और पंजाब के अन्य शहरों में 5000 बच्चे फुटबाल सिलने के कामों में लगे हैं। सर्वे के मुताबिक यह बच्चे 12 से 14 घंटों में एक से दो फृटबाल ही सिल पाते हैं और एक फुटबाल सिलने के लिए उन्हें 3 से 5 रूपए मिलते हैंै।
दरअसल सरकारी विफलता का ग्राफ ऊंचा होने का एक बड़ा कारण यह है कि सरकार ने कानून बनाकर बच्चों के काम करने पर तो प्रतिबंध लगा दिया लेकिन उसके अमलीकरन के लिए और बचाए गए बच्चों के पुनर्वास की कोई व्यापक नीति उनके पास नहीं। यह पहले से ही तय था कि प्रतिबंध के बाद घरों और होटलों मे काम करने वाले लाखों बच्चे काम से बाहर हो जाएंगे। लेकिन फिर भी छुड़ाए गए बच्चों को स्कूलों में भर्ती कराने अथवा अन्य किसी भी प्रकार से शोषण से बचाने के लिए सरकार के पास कोई प्रभावी वैक्लपिक नीति तैयार नहीं है। इनमें से कई बच्चे परिवार की कमाई का मुख्य जरिया है। इन बच्चों के काम न करने की स्थिति में उनका घर कैसे चलेगा? ऐसे काम से निकाले जाने वाले बच्चों के परिवारों में वयस्कों को काम देने संबंधी कोई भी नीति तैयार नहीं की गई। अधिनियम को लागू करने से पहले सरकार के पास घरों, होटलों में काम करने वाले बच्चों की पहचान करने और उनको छुड़ाने के प्रति कोई ठोस योजना प्रक्रिया नहीं थी। पिछले साल केंद्र सरकार ने विभिन्न राज्यों से बचाव और पुनर्वास संबंण्ी कार्य योजना की मांग की थी लेकिन तीन राज्यों अलावा किसी राज्य ने ऐसी योजना नहीं बनाई। वर्ष 1987 से देश के कुछ राज्यों में लागू मौजूदा पुनर्वास नीति - ‘राष्ट्रीय बाल मजदूर परियोजना’ अभी तक प्रभावी साबित नहीं हो पाई। हर बच्चे का यह मौलिक अधिकार है कि वह उचित रूप से अपना मानसिक, शारीरिक और सामाजिक विकास कर सके। बच्चों से संबंधित सभी राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय संधियों और कानूनों का यही निचोड़ है। लेकिन इसके बावजूद दुनिया के 76 प्रतिशत बच्चे इस अधिकार से वंचित है।
बाल मजदूरी एक गंभीर और जटिल समस्या है और इससे निजात पाने के लिए एक ऐसी दीर्घकालीन योजना की जरूरत है जिस में बच्चे के उचित विकास के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य, बाल अधिकार जैसे सभी मुद्दों को शामिल करना होगा। यह तभी संभव है जब स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार और सामाजिक न्याय जैसे मंत्रालय भी बाल मजदूरों के पुनर्वास में अपनी सक्रिय भगीदारी निभाएं। जब तक बचाव और पुनर्वास की बेहतर प्रक्रिया नहीं अपनाई जाती बच्चों को घरों या होटलों से छुड़ाना उनके लिए अधिक शोषण के दरवाजे खोलना है। ऐसी घटनाएं भी सुनने को मिली हैं जहां काम से छुड़ाए गए बच्चों घरों में वापस नहीं पहुंचे जिनमें से कुछ ने कूडे़ बीनने का काम अपना लिया और कईं अन्य प्रकार के शोषण को झेलने के लिए मजबूर हो गए। नेपाल के केंद्रीय बाल कल्याण बोर्ड की एक रिपोर्ट के मुताबिक गत साल में 500 नेपाली बच्चे तस्करी के जरिए भारतीय सर्कसों में बेचे गए। इन सर्कसों में ये मासूम बच्चे किस प्रकार के शोषण का शिकार हो रहेे हैं क्या सरकार और बाल अधिकारों के चिंतक इस ओर ध्यान देंगे।
अन्नू आनंद
पिछले दिनों गुड़गांव के एक घर में काम करने वाली बच्ची लखी को मालिकों द्वारा निर्ममता से पीटे जाने की घटना ने एक बार फिर घरों में काम करने वाली असंख्य बच्चियों की सुरक्षा पर सवाल खड़े कर दिए हैं। अक्तूबर माह में घरेलू बाल मजदूरी पर लगे प्रतिबंध को दो साल पूरे हो गए। लेकिन घरों और ढाबों में काम करने वाले बच्चे अभी भी हिंसा और शोषण के माहौल में जी रहे हैं। दिल्ली-जयपुर हाईवे के एक ढाबे में काम करने वाले 10 साल के मोनू की दिनचर्या में कोई बदलाव नहीं आया। उसके दिन की शुरूआत सुबह चार बजे होती है। अपने छोटे छोटे हाथों से भारी भरकम बर्तन मांजने, फिर मेज कुर्सियां लगाने के बाद भाग भाग कर ग्राहकों को चाय, पानी पिलाने और खाना खिलाने में उसका पूरा दिन बीत जाता है। मोनू यह नहीं जानता कि दिन भर जो मेहनत वह कर रहा है वह उसका हकदार नहीं और और ऐसा करना या कराना अपराध है। सरकार ने दो साल पहले वर्ष 2006 में 14 साल से कम उमर के बच्चों का घरों, ढाबों और होटलों पर काम करने पर प्रतिबंध लगा दिया था। लेकिन इस प्रतिबंध के बावजूद आज भी देश भर में मोनू जैसे करीब 1.3 करोड़ (अधिकारिक आंकड़ांे के मुताबिक) बच्चे अभी भी पढ़ने की उमर में मानसिक और शारीरिक शोषण का शिकार हो रहे हंै। गैर सरकारी सूत्रों के मुताबिक यह संख्या 6करोड़ से ऊपर है।
काम करने वाले बच्चों का आंकड़ा करोडों़ में है। लेकिन सरकारी मशीनरी पिछले 19 महीनों में सारे देश में से केवल 6782 बच्चों को ही बचा सकी। कुल मिलाकर आठ हजार के करीब ऐसे मामलों का पता चला जिनमें कि सरकारी प्रतिबंध के बावजूद बच्चों से काम कराया जा रहा था। लेकिन इनमें से भी केवल 1680 मालिकों के खिलाफ ही मामला दर्ज किया गया। इस नियम को लागू करने की जिम्मेदारी श्रम मंत्रालय पर है। लेकिन श्रम मंत्रालय की ‘काबिलियत’ का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि राजधानी दिल्ली में ऐसे इस कानून का उल्लघंन करने वाले केवल 26 मामलों का ही पता लगाया जा सका। उन में से भी 12 मामले ही दर्ज हुए। जबकि दिल्ली में गैर सरकारी आंकड़ो के मुताबिक काम करने वाले बच्चों की संख्या 10 लाख बताई जाती है। बहुत से राज्यों में बचाए गए बच्चों का रिकार्ड भी उपलब्ध नहीं। जिन राज्यों मंे पता लगाए गए मामलों की संख्या अधिक है वहां भी बहुत कम मामलों मंे ही मुकदमा चलाया गया। जैसे उत्तर प्रदेश में अधिनियम का उल्लघंन करने वाले 726 मामलों का पता लगाया गया लेकिन मुकदमा केवल 92 मामलों में ही चला।
बाल मजदूरी (उन्मूलन एवं प्रतिषेध) अधिनियम 1986 की खतरनाक श्रेणी में मौजूद 13 व्यवसायों में घरेलू नौकर, होटलों और स्पा को शामिल करने का मुख्य मकसद यह था कि कम आयु में बच्चों को काम की कठोर स्थितियों से बचाकर उन्हें स्कूलों का रास्ता दिखाया जाए। ग्रामीण इलाकों में स्कूलों में बढ़ते ड्राप -आउट का एक बड़ा कारण यह भी है कि मां बाप बच्चों को शहरों में भेजकर उन्हें काम पर लगाने में अधिक दिलचस्पी दिखाते हैं ताकि उन्हें घर की कमाई में मदद मिल जाए। सेव द चिल्ड्रन संस्था द्वारा पिछले साल कराई गई एक सर्वे में बताया गया है कि दिल्ली और कोलकाता में घरों में काम करने वाले बाल मजदूरों में अधिकतर संख्या लड़कियों की है जो देश के विभिन्न हिस्सों से काम करने के लिए इन शहरों में पहुंचती हैं। सर्वे से पता चला कि 68 प्रतिशत बच्चे मारपीट के शिकार हुए और 47 प्रतिशत बच्चे मारपीट के कारण कई बार जख्मी हो चुके थे। उम्मीद यह की जा रही थी कि घरेलु बाल मजदूरी पर प्रतिबंध के चलते घर की चारदीवारी में जुल्म सहने वाले बहुत से बच्चों को राहत मिलेगी। बाल अधिकारों के समर्थकों का भी मानना था कि इस प्रतिबंध के बाद स्कूलों में बच्चों की भर्ती बढ़ेगी। प्रतिबंध के मुताबिक इसका उल्लघंन करने वाले किसी भी व्यक्ति को बाल मजदूरी (उन्मूलन एवं प्रतिषेध) अधिनियम 1986 के तहत तीन माह से दो साल की साल की कैद और 10 से 20 हजार रूपए का जुर्माना हो सकता है। लेकिन हैरत की बात यह है कि जो मुकदमे दर्ज भी हुए हैं उनमें अभी तक किसी भी मामले में किसी व्यक्ति को सजा मिलना का मामला सामने नहीं आया। बाल अधिकार से जुड़ी संस्थाएं इस बात से सहमत हैं कि प्रतिबंध प्रभावी साबित नहीं हो सका। श्रम मंत्रालय का मानना है कि उनके पास संसाधनों की कमी है इसलिए जल्द कुछ कर दिखाना संभव नहीं। लेकिन बाल मजदूरी से जुड़े अधिनियमों के अनुभव इस बात के गवाह हैं कि प्रतिबंध से वांछित सफलता की उम्मीद उचित नहीं।
होटलों और घरों में बच्चों के काम करने पर प्रतिबंध लगे दो साल ही बीते हैंै इसलिए सरकारी अमला कम समय की दुहाई देकर अपना पल्ला झाड़ सकता है लेकिन बाल मजदूरी उन्मूलन अधिनियम 1986 को लागू हुए कईं साल बीत गए फिर भी पटाखे, फुटबाल और कालीन बनाने से लेकर अन्य खतरनाक उधोगांे में आठ सालों के भीतर केवल 22588 मामलों में ही कार्रवाई की गई जबकि इन सभी उधोगों में काम करने वाले बाल मजदूरों की संख्या 6.70 करोड़ (गैर सरकारी आंकड़ों के मुताबिक) है। बाल अधिकारों पर काम करने वाली बचपन बचाओं संस्था के हाल ही में कराए गए एक अध्ययन के मुताबिक मेरठ, जालंधर सहित उत्तर प्रदेश और पंजाब के अन्य शहरों में 5000 बच्चे फुटबाल सिलने के कामों में लगे हैं। सर्वे के मुताबिक यह बच्चे 12 से 14 घंटों में एक से दो फृटबाल ही सिल पाते हैं और एक फुटबाल सिलने के लिए उन्हें 3 से 5 रूपए मिलते हैंै।
दरअसल सरकारी विफलता का ग्राफ ऊंचा होने का एक बड़ा कारण यह है कि सरकार ने कानून बनाकर बच्चों के काम करने पर तो प्रतिबंध लगा दिया लेकिन उसके अमलीकरन के लिए और बचाए गए बच्चों के पुनर्वास की कोई व्यापक नीति उनके पास नहीं। यह पहले से ही तय था कि प्रतिबंध के बाद घरों और होटलों मे काम करने वाले लाखों बच्चे काम से बाहर हो जाएंगे। लेकिन फिर भी छुड़ाए गए बच्चों को स्कूलों में भर्ती कराने अथवा अन्य किसी भी प्रकार से शोषण से बचाने के लिए सरकार के पास कोई प्रभावी वैक्लपिक नीति तैयार नहीं है। इनमें से कई बच्चे परिवार की कमाई का मुख्य जरिया है। इन बच्चों के काम न करने की स्थिति में उनका घर कैसे चलेगा? ऐसे काम से निकाले जाने वाले बच्चों के परिवारों में वयस्कों को काम देने संबंधी कोई भी नीति तैयार नहीं की गई। अधिनियम को लागू करने से पहले सरकार के पास घरों, होटलों में काम करने वाले बच्चों की पहचान करने और उनको छुड़ाने के प्रति कोई ठोस योजना प्रक्रिया नहीं थी। पिछले साल केंद्र सरकार ने विभिन्न राज्यों से बचाव और पुनर्वास संबंण्ी कार्य योजना की मांग की थी लेकिन तीन राज्यों अलावा किसी राज्य ने ऐसी योजना नहीं बनाई। वर्ष 1987 से देश के कुछ राज्यों में लागू मौजूदा पुनर्वास नीति - ‘राष्ट्रीय बाल मजदूर परियोजना’ अभी तक प्रभावी साबित नहीं हो पाई। हर बच्चे का यह मौलिक अधिकार है कि वह उचित रूप से अपना मानसिक, शारीरिक और सामाजिक विकास कर सके। बच्चों से संबंधित सभी राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय संधियों और कानूनों का यही निचोड़ है। लेकिन इसके बावजूद दुनिया के 76 प्रतिशत बच्चे इस अधिकार से वंचित है।
बाल मजदूरी एक गंभीर और जटिल समस्या है और इससे निजात पाने के लिए एक ऐसी दीर्घकालीन योजना की जरूरत है जिस में बच्चे के उचित विकास के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य, बाल अधिकार जैसे सभी मुद्दों को शामिल करना होगा। यह तभी संभव है जब स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार और सामाजिक न्याय जैसे मंत्रालय भी बाल मजदूरों के पुनर्वास में अपनी सक्रिय भगीदारी निभाएं। जब तक बचाव और पुनर्वास की बेहतर प्रक्रिया नहीं अपनाई जाती बच्चों को घरों या होटलों से छुड़ाना उनके लिए अधिक शोषण के दरवाजे खोलना है। ऐसी घटनाएं भी सुनने को मिली हैं जहां काम से छुड़ाए गए बच्चों घरों में वापस नहीं पहुंचे जिनमें से कुछ ने कूडे़ बीनने का काम अपना लिया और कईं अन्य प्रकार के शोषण को झेलने के लिए मजबूर हो गए। नेपाल के केंद्रीय बाल कल्याण बोर्ड की एक रिपोर्ट के मुताबिक गत साल में 500 नेपाली बच्चे तस्करी के जरिए भारतीय सर्कसों में बेचे गए। इन सर्कसों में ये मासूम बच्चे किस प्रकार के शोषण का शिकार हो रहेे हैं क्या सरकार और बाल अधिकारों के चिंतक इस ओर ध्यान देंगे।
Thursday, 6 November 2008
अंधेरे से उजाले की ओर
अन्नू आनंद
नसरीन परवीन के चेहरे पर खुशी साफ दिखाई पड़ रही थी। इस खुशी का कारण उसका आत्मविश्वास था जो उसे आश्रम की पढ़ाई से मिला था। अभी तक मदरसे के स्कूल में महज उर्दू पढ़ना सीखने वाली नसरीन की यह हसरत थी कि वह भी स्कूल में जाने वाले दूसरे बच्चों की तरह हिंदी अग्रेंजी भी पढ़ना सीखे। नसरीन के पांचों भाई बहन मदरसे में पढ़ते हैं। लेकिन 14 वर्षीय नसरीन यहां तीसरी कक्षा तक की शिक्षा हासिल करने के बाद नियमित स्कूल में जाने का रास्ता तैयार कर रही है।
हसीना खातून 13 साल तक कभी स्कूल नहीं जा पाई क्योंकि उसके गांव बरान में कोई स्कूल नहीं था। दूसरे गांव स्थित स्कूल जाने के रास्ते मंे नदी पड़ती थी। बरसात के दिनों में नदी में पानी भर जाने के कारण गांव के अधिकतर बच्चे स्कूल नहीं जा पाते। इसलिए हसीना चाह कर भी अपनी पढ़ने की इच्छा को पूरा नहीं कर पाई। हसीना ने कभी सोचा नहीं था कि अब भी उसके स्कूल जाने का सपना हकीकत में बदल सकता है। लेकिन आवासीय आश्रम में आने के बाद उसे अपना पढ़कर टीचर बनने का सपना साकार होता नजर आ रहा है।
नसरीना और परवीन जैसी कई लड़कियों की किताबों को पढ़ने की तीव्र लेकिन दमित ख्वाहिश पूरी हो सकी क्योंकि स्थानीय शिक्षा कार्यकत्र्ताओं ने यहां के मुस्लिम बहुल गावों में जाकर लड़कियों के घरवालों और स्थानीय मौलानाओं को समझाया कि वे गांव की लड़कियों को पास के गांव में स्थित आश्रम के आवासीय स्कूल मे पढ़ने के लिए भेजे।
वनवासी विकास आश्रम झारखण्ड के गिरडीह जिले के बगोदर ब्लाॅक में स्थित है। यह आश्रम 10 से 14 साल की उन बच्चियों के लिए आवासीय ब्रिज स्कूल चलाता है जो लड़किया काम या दूरी के कारण कभी स्कूल नहीं जा पाई या फिर किन्हीं कारणों से उन्हें बीच में ही स्कूल छोड़ना पड़ा। लेकिन अब इन लड़कियों को सामान्य स्कूलों मंे उमर के मुताबिक उन कक्षाओं में दाखिला नहीं मिल पाता जिनमें उन्हें होना चाहिए।
बगोदर ब्लाॅक झारखंड राज्य की कम साक्षरता दर वाले क्षेत्रों मंे एक है। खासकर लड़कियों की साक्षरता दर यहां 30 प्रतिशत से भी कम है। इस का एक बड़ा कारण कुछ समय पहले तक यहां स्कूलों की कमी थी। प्राथमिक शिक्षा से वंचित अधिकतर यहां की लड़कियां पशु चराने और घर और बच्चों को संभालने के कामों में लगी रहती हैं।
हांलाकि पिछले कुछ सालों में सर्व शिक्षा अभियान के तहत यहां के गावों में स्कूल जाने वाले बच्चों की संख्या बढ़ी है लेकिन पहले स्कूल छोड़ चुके बच्चों को कोई खास लाभ नहीं पहुंचा। लड़कियां खासकर दस से चैदह साल की उमर की लड़कियों को सेकेंडरी और हाई-स्कूलों में तब तक दाखिला नहीं मिलता जब तक कि उन की प्राथमिक कक्षाओं की पढ़ाई का स्तर मजबूत नहीं होता।
एक से पांच कक्षा की बुनियादी शिक्षा में उन्हें निपुण बना मुख्यधारा के नियमित स्कूलों तक पहुचांना ही बनवासी आश्रम स्कूल का मुख्य मकसद है। आश्रम के संस्थापक सुरेश कुमार शक्ति के मुताबिक इसके लिए ब्लाॅक के उन 20 गावों को लक्ष्य बनाया गया है, जहां की साक्षरता की दर बेहद कम है। हर साल 100 के करीब लड़कियों को दाखिला दिया जाता है। एक साल के अंतराल के दौरान उन्हें एक से पांच तक की सभी कक्षाओं का कोर्स पढ़ाया जाता है। इसके लिए शिक्षा के नए और अनूठे तरीकों का उपयोग किया जाता है।
कक्षा तीन में पढ़ने वाली 14 साल की सोनी कुमारी बताती है, ‘‘जब मैं यहां आई तो शुरू शुरू में मुझे सुबह उठना फिर कक्षा शुरू होने से पहले अपना सारा काम निपटाना उसके बाद स्कूल की पढ़ाई और फिर स्कूल के बाद अपने पाठ याद करना सभी बेहद कठिन लगता था। लेकिन अब मुझे हर काम समय पर करने की आदत हो गई है और अब खेल- खेल में पढ़ाई और नाच-गाना सीखने में मुझे बेहद मजा आता है।’’ सोनी को बड़े होकर टीचर बनना है इसलिए वह कहती है मैं आगे भी पढ़ना चाहती हूं।
पिछले कईं सालों से स्कूल में पढ़ाई से लेकर स्कूल के अन्य कार्यकलापों को देखने वाली टीचर रेनु कुमारी के मुताबिक वर्ष 2000 में जब आश्रम की शुरूआत हुई थी तो गावों मे जाकर लड़कियों को स्कूल आने के लिए तैयार करना बेहद कठिन काम था। लेकिन अब तो इतनी अधिक संख्या में लड़कियां आने लगीं हैं कि हमारे पास सीटें कम होती हैं।
रेणु के मुताबिक लड़कियों को सब से पहले साफ सफाई की जानकारी दी जाती है। नहाने कपड़ो को साफ रखने बालों और नाखूनों की सफाई जैसी बुनियादी बातों से उनकी सीखने की प्रक्रिया शुरू होती है। उन्हें हर काम अनुशासन में करने का विशेष प्रशिक्षण दिया जाता है।
स्कूल में लडकियों की भर्ती के लिए एक विशेष प्रक्रिया अपनाई जाती है। सब से पहले संबंधित क्षेत्र के शैक्षिक आंकड़ों की जांच की जाती है। फिर उन गावों में नुक्कड़ नाटक, दीवार पेपर और जलसे जलूसों के जरिए लड़की की शिक्षा के महत्व के संबंध में समुदाय के लोगों को जागरूक बनाया जाता है। इसी दौरान आश्रम के कार्यकत्र्ता ग्राम पंचायतों के साथ बैठकें कर स्कूलों से बाहर 10 से 14 साल की लड़कियों का पता लगााते हैं। फिर आर्थिक और जातीय आधार पर इन बच्चों का वर्गीकरण किया जाता है ताकि हर वर्ग की लड़की को पढ़ने का अवसर मिले।
श्री सुरेश के मुताबिक कुल 100 साटों में से 25 फीसदी आदिवासी, 25 फीसदी अनुसुचित जाति और 25 फीसदी आर्थिक रूप से पिछड़े और 25 अल्प समुदाय के लिए आरक्षित रखी गई हैं।
दाखिले की प्रक्रिया पूरी होने के बाद योगयता और समझ के आधार पर उन्हें एबीसीडी श्रेणियों में बांटा जाता है। फिर उनकी योगयता स्तर के मुताबिक सिखाने का पैमाना तय किया जाता है। पढ़ाने के लिए यहां के ऐसे तरीकांे का इस्तेमाल किया जाता है जिससे कम समय में और खेल खेल में अधिक सिखाया जा सके। जैसे कक्षा दो में करीब 40 लड़कियों के समूह को एक से 100 तक की गिनती सिखाने के लिए एक से 100 तक लिखे कार्डो को एक लाइन में लगाने के लिए कहा गया। सभी लड़कियां को सही नंबर का कार्ड ढेर में से ढंूढने को कहा गया जो सही कार्ड ढूंढ कर लगाती उसके लिए सभी तालियां बजाते। पढ़ाने के अलावा सास्कृतिक और सामूहिक कार्यकलापों पर यहां अधिक ध्यान दिया जाता है। हसीना के मुताबिक स्कूल में दिन की शुरूआत प्रार्थना और योगा के साथ होती है। उसके बाद अलग-अलग विषयों पर नियमित कक्षाएं शुरू होती हैं। मुख्य तौर पर स्कूल में गणित, ंिहंदी, पर्यावरण पढ़ाया जाता है। शाम का समय खेल का होता है। सोने से पहले अंग्रेजी की क्लास होती हैं। सप्ताह के आखिरी दिन रविवार को बच्चों को चित्रकारी, कढ़ाई और दूसरे काम की चीजें सिखाई जाती हैं। इस के अलावा पढ़ाई में कमजोर रहने वाले बच्चों के लिए इस दिन विशेष कक्षाएं भी आयोजित की जाती हैं। यह दिन मां -बाप को भी अपने बच्चों से मिलने आने की छूट होती है। बच्चों मंे जिम्मेदारी और नेतृत्व की भावना पैदा करने के लिए उन्हें आश्रम के विभिन्न काम सौंपे जाते हैं। इसके लिए आश्रम में एक बाल संसद का गठन किया गया है। बाल संसंद के लिए एक प्रधानमंत्री और मंत्रियों का चुनाव किया जाता है। चयनित बाल मंत्रियों को स्वास्थ्य साफ सफाई, सांस्कृतिक और खेल कूद की जिम्मेदारी सौंपी जाती है। बाल संसद के तहत विशेष समितियां भी बनाई गई हैं जो परिसर की साफ सफाई, बर्तन मांजने और समय पर हर काम को पूरा करने जिम्मा उठाती है।
जिस समय लेखक ने इस आश्रम में प्रवेश किया बहुत सी लड़कियों को अलग अलग समूहों में बंटा पाया। एक समूह में संवाददाताओं का चयन किया जा रहा था। पूछने पर पता चला कि यह हर माह लड़कियों द्वारा निकाले जाने वाले समाचारपत्र की तैयारी चल रही है। इसमें हर बार चक्रीय प्रक्रिया से चयनित संवाददाता माह के दौरान के अपने अनुभवों और अन्य मुद्दों पर लिखती हैं। एक समूह में गाने की रिहर्सल चल रही थी और एक अन्य कमरे में कुछ लड़कियां वाद विवाद और निबंध याद करने में व्यस्त थीं। यह तैयारी हर माह होने वाली बाल सभा के लिए की जा रही थी
श्री सुरेश के मुताबिक जब हमने इस प्रोजेक्ट को शुरू किया था तो सबसे पहले हमें युनिसेफ से दो साल के लिए सहयोग मिला था। उसके बाद वर्ष 2002 से यह प्रोजेक्ट दो सालों के लिए रीच इंडिया के सहयोग से चला। लेकिन उसके बाद पिछले दो सालों से सर्व शिक्षा के अभियान के ब्रिज कोर्स योजना से इसे वित्तीय मदद मिल रही है। लेकिन इसमें फंड अधिक न होने के कारण अभी हमें बेहद कठिनाई का सामना करना पड़ रहा है। श्री सुरेश के मुताबिक वर्ष 2005-06 में 100 में से 75 लड़कियों को हम नियमित स्कूलों में दाखिल कराने मे सफल रहे। इसी तरह वर्ष 2006-07 में 53 लड़कियांे को यहां ब्रिज कोर्स करने के बाद नियमित स्कूलों में दाखिला मिला। इस साल दो लड़कियां बोर्ड की परीक्षा भी दे रही हैं।
आश्रम के माहोल की बोरियत को तोड़ने के लिए समय समय पर लड़कियों को ऐतिहासिक स्थलों या दूसरे पिकनिक स्थलों पर भी लेजाया जाता है। इससे उन्हें अपने गांव के अतिरिक्त बाहरी दुनिया को देखने और समझने का मौका मिलता है।
जैसा कि कभी स्कूल न जाने वाली यहां की शाहीना कहती है मैं यहां आने से पहले अंधेरे से बहुत डरती थी लेकिन अब मुझे अधेंरे में भी डर नहीं लगता, मैं नहीं जानती थी कि शिक्षा की लौ इतनी तेज होती है।
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