Friday 23 July 2010

कोख का कारोबार

सरोगेसी पर महिला विरोधी विधेयक

अन्नू आनंद

हाल ही में भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद ने देश में सरोगेसी यानी किराए पर कोख से जुड़े विधेयक का मसौदा स्वास्थय मंत्रालय को भेजा है। मंत्रालय और परिषद में कईं सालों से चल रही कवायद के बाद जो प्रारूप तैयार किया है वह निराशाजनक है। अस्सिटिड रिर्पोडेक्टिव टेकनाॅलाजी (एआरटी) को नियं़ित्रत करने का जो मसौदा बना है उसमें महिला के हितों को कम बाजार को अधिक ध्यान में रखा गया है। प्रारूप के अधिकतर प्रावधानों से स्पष्ट है कि सरकार एआरटी के जरिए कीमती और खतरनाक प्रक्रियाओं को प्रोत्साहित करने के पक्ष में है।

विधेयक में सरोगेसी के नाम पर किराए पर कोख देने वाली महिला को आर्थिक मुआवजा देने, सीमेंन बैंक, फर्टीलिटी क्लीनिक, दवा कंपनियां और एआरटी बैंकों को बिचैलिए बनाकर किराए पर कोख देने और लेने के प्रावधानों का उल्लेख है। ये बैंक बकायदा कानूनी तौर पर विज्ञापन के माध्यम से सरोगेट मांओं, शुक्राणुओं और अण्डाणुदात्ताओं का पता लगाने का काम करेंगे। बैंक इन दात्ताओं को इसकी फीस भी अदा करेगा। विधेयक के एक अन्य प्रावधान के मुताबिक सरोगेट मां किराए पर कोख लेने वाले दंपति से भी वित्तीय मुआवजा ले सकती है। विधेयक में जिस प्रकार से बैंकांे, क्लीनिकों, ग्राहकों और पैसे के लेन -देन की सिफारिशों का जिक्र किया गया है उससे साफ जाहिर है कि सरकार और दवा कंपनियां एक औरत की जनन अक्षमता को भुना कर देश में कृत्रिम तरीके से बच्चा जनने के एक बड़े उधोग को बढ़ावा देने के पक्ष में है।

यह सही है भारतीय समाज में महिला के मां के रूप को अधिक सम्मानित किया जाता है। विवाह के बाद ‘दूधो नहाओ पूतो फलो’ जैसे पारंपरिक आर्शीवचन आज भी उसकी परिपूर्णता मां बनने पर केंद्रित करते हैं। जो महिला शादी के कुछ सालों के बाद मां नहीं बन पाती उसे घर परिवार में ही नहीं समाज में भी हीन भावना से देखा जाता है। लेकिन विडंबना यह है कि महिला के प्राकृतिक रूप से संतान पैदा करने से जुड़े महत्व को खारिज करने की बजाय तकनीकी विकास का इस्तेमाल ऐसी प्रक्रियाओं को प्रचारित करने मेें किया जा रहा है जो महिला के लिए बच्चा जनने के तरीके को व्यापार में बदल रहा है। इससे भले ही उसका स्वास्थ्य दाव पर लग जाए। शर्म की बात यह है कि सरकारी एजंसिया भी इसमें ‘बिजनेस’ के पहलु को अधिक महत्व दे रही हैं। विधेयक में आईवीएफ बैंक, अण्डाणु-शुक्राणु बैंक और आईवीएफ की तकनीकों का जिक्र कर एआरटी को जादू की छड़ी के रूप में पेश किया जा रहा है और ऐसा करने में उन खतरों और आशंकाओं को भुला दिया जा रहा है जो महिला के स्वास्थ्य से जुड़े हैं। विधेयक में केवल किराए पर कोख लेने के संबंध में किए जाने वाले समझौते से जुड़े विशेष प्रवधानों का उल्लेख है लेकिन कोख किराए पर देने वाली महिला के अधिकारों और उसके स्वास्थ्य के हितों की कोई चर्चा नहीं। विधेयक में स्वास्थ्य को होने वाले खतरों को केवल ‘छोटे खतरों’ं के रूप में वर्णित किया गया है। विधेयक के मुताबिक एक महिला अपने बच्चों के अलावा पांच सफल जन्मों के लिए अपनी कोख किराए पर दे सकती है। लेकिन बार बार गर्भवती बनाने या आईवीएफ तकनीक के अधिक प्रयोग से महिला या बच्चे के जीवन से जुड़े गंभीर खतरों को इसमें महत्व नहीं दिया गया।

पिछले कुछ सालों के अंदर भारत में सरोगेसी एक बहुत बड़े व्यापार में तबदील हो चुका है। एक अनुमान के मुताबिक भारत में सरोगेसी का व्यापार 445 मिलियन डालर का है। यहां एक दंपति को एकबार कोख किराए पर लेने का कुल खर्चा 8 से 10 लाख तक का है। जबकि अमेरिका में यही खर्चा 25 से 35 लाख है।

इनमें 70 प्रतिशत ग्राहक गैर प्रवासी भारतीय हैं। दरअसल जिन देशों में कृत्रिम प्रजनन से संबंधित कानून ढीले हैं या फिर जिन देशों में इन तकनीकों से जुड़ी चिकित्सा सुविधाएं अधिक विकसित हैं उन देशों में ‘प्रजनन टूरिज्म’ अधिक पनप रहा है। भारत में विदेशियों द्वारा कोख किराए पर लेने के प्रति कोई दिशा निर्देश नहीं इस कारण पिछले कुछ समय से भारत में कम लागत और कम कड़े कानूनों के चलते सरोगेसी का व्यापार और बाजार बढ़ा है।

भारत में गरीबी के चलते आर्थिक मजबूरी के कारण गरीब और पिछड़ी महिलाएं किराए पर कोख देने के लिए तैयार रहती हैं। लेकिन बिचैलिए के रूप में काम करने वाली एजेंसियां इन जरूरतमंद महिलाओं को मात्र प्रजनन की वस्तु मानकर उनके शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य का शोषण कर रही हैं। उम्मीद की जा रही थी कि सरोगेसी और एआरटी तकनीको को नियंत्रित करने वाले कानून से महिलाओं के स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए तकनीकों के दुरूपयोग पर रोक लगाई जाएगी। लेकिन विधेयक के प्रारूप से स्पष्ट होता है कि स्वास्थ्य मंत्रालय को महिलाओं के स्वास्थ्य की कितनी चिंता है। फिलहाल सरकार की पूरी मंशा देश में ‘प्रजनन स्वास्थ्य टूरिज्म’ को बढ़ाने में दिखाई दे रही है।

(यह लेख 22 जुलाई 2010 को दैनिक भास्कर में प्रकाशित हुआ है। )